स्तब्ध निरभ्र सुरम्य अभ्र तो
अज्ञान विज्ञान से परे क्या है
काला विवर भयंकर है तो
ब्रह्मांड का सच्चा रंग क्या है
प्रकृति पुरुष से जुड़ी है, तो
योनी और गर्भ क्या है
उस अंधेरी गुहा के बिना
कोई जीवन बनता कहां है
बीज जब मिट्टी में मिले
तो पौध नयी बनती है
रक्त के कण जब सींचे
तो स्त्री जीव नये गढ़ती है
ये सृष्टि सुन्दर हो जाये जब
समझो मां रजस्वल होती है
रक्तिम होना शर्म नहीं है
इस पीड़ा से इक मां बनती है
जनमानस ईश्वर को पूजे
मैं तो पूजूं अम्ब का उत्सव
पुरुषत्व महत्ता का बिम्ब यदि
पीढ़ियां बनतीं बिन कलरव
स्त्री का स्वभाव सहन है
चुपचाप गढ़ती वह घर और घट
हर स्त्री का लालवस्त्र बने पूजनीय
यही मांगूं मैं इस अम्ब उत्सव !!
मेरे भाई, मैं कृष्ण चाहती हूं !
मेरे भाई, मैं कृष्ण चाहती हूं
युगपुरुष वह, युगद्रष्टा वह
तुममें वही परमावतार चाहती हूं !
जिसने प्रेम स्वीकारा सुभद्रा का
मार्ग दिखाया श्रेष्ठ जीवन का
सारथी वही सच्चा प्रेमावतार चाहती हूं !
पांचाली के एक-एक रेशे का
उधार सही मायने में चुकाने वाला
नारी जाति का तारणहार चाहती हूं!
कान्हा जैसा संरक्षक
सोलह गुणों से युक्तक
पुरुष श्रेष्ठ पालनहार चाहती हूं!
भाई तुममें वही परमावतार चाहती हूं;
मेरे भाई, मैं कृष्ण चाहती हूं !!



