राजीव थेपड़ा
सोचो, सोचो ! जरा सोचो ना!!
इसे कविता न भी समझो तो भी सोचो
एक आदमी सर्दी-गर्मी-बरसात में
दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करके
पाई-पाई करके कमाता है
और एक आदमी अपने दफ़्तर में
कुछ कागज़ों पर दस्तख़त करने के लिए
अपनी जेनूईन तनख्वाह के अलावा
हमसे गैर-ज़रूरी पैसे पाता है !!
एक आदमी हमारे लिए भरी धूप में
तरह-तरह के जोखिमों से घिरा
घुटनों भर कीच में घुसा
हमारे लिए अन्न उपजाकर
अपनी लागत भी नहीं पाता है
दूसरा आदमी अपने कारखानों में
उसी अन्न से न जाने क्या-क्या बना कर
अपनी फैक्टरियों का विस्तार कराता है !!
एक आदमी सड़क पर तारकोल-गिट्टी
और पसीना डाल कर सड़क बनाता है
दूसरा आदमी उसी सड़क में हिसाब और
कमीशन में करोड़ों बनाता है !!
एक आदमी रिक्शा चलाता, कुलीगिरी करता दो जून की रोटी भर पाता है
दूसरा आदमी घटिया निर्माण कर
लोगों की जान लेकर अरबों कमाता है !!
एक आदमी जंगलों में जमीन के ऊपर रहता वनोपज से अपना गुजारा चलाता है
दूसरा आदमी उन्हें ही वहां से बेदखल कर
जंगल को स्वाहा कर, धरती की कोख से
न जाने क्या-क्या चुरा कर ऊंचा होता जाता है !!
एक आदमी सड़क पर खोमचे लगाकर
अपने बाल-बच्चों को पालने में खुद को असमर्थ पाता है
दूसरा आदमी मिलावट और कालाबाजारी कर विदेश में पैसे जमा करवाता है
ये देश एक वैसा देश है जहाँ एक आदमी
अपना समूचा लहू देकर भी ठीक से जी नहीं पाता
मगर एक दूसरा आदमी कुछ सवाल करके
या थोड़ी एक्टिंग करके या क्रिकेट खेलकर
अरबों-अरब कमाता है !!
मज़ा यह है कि इस पहले आदमी के पास पैसा तो नहीं ही है, सम्मान तक नहीं नसीब उसे
मगर ये दूसरा आदमी कुछ न करके भी अपनी जुगाड़ बुद्धि से पैसे के साथ शोहरत भी कमाता है
इसे तुम कविता बिलकुल भी न समझो मगर
एक के बाद एक पन्द्रह अगस्त आकर चला जाता है
मगर सवा अरब लोगों के इस देश के
एक अरब लोगों हर एक सपना लहुलुहान होता जाता है
इस लहुलुहान भारत में जब कभी एक सफ़ेद कपड़ों वाला आदमी तिरंगा फहराता है
इसकी मिट्टी की कसम, इस देह का रोआं रोआं चीखता है चिल्लाता है
इस अंधेरे को मेटने की कसम खाता है
मगर यह दिन भी निकल जाता है
ये खदबदाता गुस्सा एक गद्यनुमा कविता की
चंद लकीरों में कैद हो जाता है
यह गुस्सा जो न देश बदल पाता है
और न एक अच्छी कविता ही बन पाता है !!



