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मोह में फंसकर भरत ऋषि बन गए हिरण, मन तो चंचल रहेगा ही, मगर बचना है…

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be cautious with fickle mind : चंचल मन से सतर्क रहें, भटकें नहीं। मन बड़ा चंचल है। यह कभी भी भटक सकता है। मोह में फंसकर भरत ऋषि को हिरण बनना पड़ा। काम, क्रोध, लोभ और मोह खतरनाक हैं। बड़े-बड़े ऋषि मुनि इसमें भटक गए। इसलिए इनसे सावधान रहना चाहिए। मन को टटोलते रहें कि यह आप पर हावी न हो। यहां मैं महान भरत ऋषि की कथा सुना रहा हूं। लोभ में पड़कर उन्हें हिरण के रूप में जन्म लेना पड़ा था। इससे आप खुद समझ सकते हैं। लोभ किस तरह लंबी साधना पर पानी फेर देता है। फिर मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्कर में उलझ जाता है।

भरत के नाम पर ही भारत बना 

ये वही भरत हैं जिनसे देशा का नाम भारत पड़ा। राज्य करते वृद्ध होने पर उन्होंने पुत्रों को राजपाट पुत्रों को सौंप दिया। खुद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया। शालिग्राम तीर्थ में तप करने लगे। इसी दौरान उन्होंने नदी में बह रहे एक हिरण के बच्चे की रक्षा की। बाद में उसी मृग की चिंता करते हुए उनकी मौत हुई। परिणामस्वरूप अगला जन्म हिरण के रूप में हुआ। तप के कारण उनकी स्मृतियां बनी रहीं। इसलिए हिरण के जन्म में भी भगवान के ध्यान में लीन रहे।

बार-बार हुआ जन्म फिर भी स्मृतियां बनी रहीं

मृत्यु के बाद ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ। तब भी पूर्व जन्म की स्मृतियां थीं। उन्होंने समझ लिया कि आसक्ति दु:खों का कारण है। इस बार आसक्ति नाश के लिए प्रयासरत रहे। जन्म के साथ ही जड़ की तरह रहने लगे। लोग इन्हें मूर्ख समझने लगे थे। लेकिन, ये मोक्ष प्राप्ति के लिए ऐसा कर रहे थे। पिता उन्हें विद्वान पंडित बनाना चाहते थे। लेकिन वे ऐसा नहीं चाहते थे। चंचल मन से सतर्क रहना उन्होंने सीख लिया था।

परिवार ने निरादर किया लेकिन नहीं बदले

बाद में माता-पिता की मृत्यु हो गई। भाई-भाभियां काफी बुरा व्यवहार करने लगे। भाई पुरोहिती कर काफी अर्थोपार्जन करते थे। भाभियां निकम्मा बोल ताना देने लगीं। इस कारण से वे मजदूरी करने लगे। जो मिल जाता वही खा लेते। जहां जगह मिलती सो जाते थे। वे सुख-दु:ख, मान-सम्मान को समान समझने लगे थे। परिवार को लगा कि समाज में अप्रतिष्ठा हो रही है। उन्होंने भरत को खेती में लगा दिया। वे रात-दिन मेड़ पर बैठकर रखवाली करने लगे।

डाकू ने बलि चढ़ाने की कोशिश की, काली ने रक्षा की

इसी बीच एक डाकू को संतान नहीं हो रही थी। तांत्रिक ने बताया कि मां काली के समक्ष एक व्यक्ति की बलि दो। ऐसा करने पर संतान हो जाएगी। ऐन समय पर जिसकी बलि देनी थी, वह भाग गया। डाकू भरत को उठा ले गए। डाकू ने भरत की बलि देने के लिए तलवार उठाई। तभी मां काली प्रकट हो गई। उन्होंने डाकुओं के सरदार के हाथ से तलवार छीनी। फिर उसका ही वध कर दिया।

राजा ने कहार का काम लिया

भरत फिर खेतों की मेड़ पर बैठ गए। खेतों की रखवाली करने लगे। कुछ दिनों बाद राजा रहूगण की पालकी उधर से गुजरी। वे ब्रह्मज्ञान लेने कपिल मुनि के पास जा रहे थे। रास्ते में एक कहार की मौत हो गई। रहूगण के सेवक भरत को पकड़ कर ले गए। भरत बिना आपत्ति के कहार का काम करने। लेकिन, वे काफी संभल-संभल कर चल रहे थे। उन्हें चंचल मन से सतर्क रहने का मतलब समझ में आ गया था। ध्यान दे रहे थे कि पैरों से कुचल कर किसी जीव की मृत्यु न हो। इससे पालकी डगमगा रही थी।

सजा के डर से भी विचलित नहीं हुए

राजा रहूगण ने कहारों से पालकी डगमगाने का कारण पूछा। कहारों ने कहा कि हम तो संभल कर चलते हैं। यह नया कहार डगमगा रहा है। राजा रहूगण ने जड़भरत को धमकाया। कहा- हृष्ट-पुष्ट हो लेकिन ठीक से नहीं चल सकते। सावधानी से नहीं चले तुम्हें दंड दूंगा। भरत ने कहा कि आप सिर्फ शरीर को दंड दे सकते हैं। मुझे दंड नहीं दे सकते। मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं। यह सुनते ही राजा को झटका लगा। उन्होंने पालकी रखवा दी। भरत से उनका परिचय पूछा।

भरत ने राजा को सिखाया कल्याण का मार्ग

भरत ने कहा- मैं पूर्वजन्म में एक राजा था। मेरा नाम भरत था। मैंने श्रीहरि के प्रेम और भक्ति में घर-द्वार छोड़ दिया था। मैं हरिहर क्षेत्र में जाकर रहने लगा था। एक मृग शावक के मोह में फंस गया। इस कारण मैं भगवान को भी भूल गया। मृग शावक का ध्यान करते हुए शरीर त्याग किया। इसलिए मृग का शरीर प्राप्त हुआ। भगवान की अनुकंपा से पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं बड़ा दुखी हुआ। मैंने कितनी अज्ञानता की थी। फिर मैंने मृग शरीर का त्याग किया। अब मुझे यह ब्राह्मण शरीर प्राप्त हुआ।’

जगत में न कोई राजा और न प्रजा, सभी आत्मा

उन्होंने कहा कि मैं परमात्मा में लीन रहता हूं। राजन, इस जगत में कोई राजा नहीं है। कोई प्रजा नहीं। न कोई मनुष्य है और न कोई पशु। सब आत्मा ही आत्मा हैं। इस जगत में सब ब्रह्म ही ब्रह्म है। मनुष्य को ब्रह्म की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। यही मानव-जीवन की सार्थकता है। यही श्रेष्ठ ज्ञान है, और यही श्रेष्ठ धर्म। चंचल मन से सतर्क रहें। ब्रह्म का ही ध्यान करें। रहूगण इस ज्ञान को पाकर तृप्त हो गए। इससे उनका भी कल्याण हो गया।

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