@राजीव थेपड़ा
पंचतंत्र में कुत्ते की एक कथा आती है, जो बहुत दिनों से भूखा था और एक दिन वह अपने भोजन की तलाश में चलते-चलते एक नदी के निकट पहुंचा। नदी के तट पर एक वृक्ष था, जो बिलकुल सूखा हुआ था। उस पर एक भी पत्ता नहीं था, केवल शाखाएं ही बची थीं। उनमें से एक शाखा पर एक रोटी लटक रही थी और उस वृक्ष पर लटकी रोटी का प्रतिबिम्ब नीचे नदी के पानी में पड़ रहा था। कुत्ते ने पानी की ओर देखा, तो उसे पानी में रोटी दिखाई दी और रोटी के लिए उसने नदी में छलांग लगा दी। नदी का पानी हिला, तो रोटी तैर कर आगे जाती हुई प्रतीत हुई और जब वह रोटी को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, तो रोटी और आगे बढ़ती प्रतीत हुई !
इस प्रकार वह रोटी को पाने के प्रयास में आगे बढ़ता गया और अंत में वह तैरता तैरता थक गया और अंततः गहरी नदी में जाकर डूब गया !
…तो, इस बोध कथा का सत्व यही है कि सम्भवतः हमारा जीवन भी ऐसा ही है! हम एक ऐसी भूख से घिरे हुए हैं, जिसका कोई अंत नहीं है ! हमारे अंदर इच्छाओं का एक अनन्त सागर सदैव लहराता रहता है और उसमें हमारे द्वारा कल्पित की जाती भांति-भांति की वस्तुएं और साधन उन्हीं रोटियों के रूप में हमारी इच्छाओं के सागर में तैरती रहती हैं और उनमें से जैसे ही हम किसी वस्तु को पा लेते हैं, वैसे ही उस वस्तु पर हमारा आकर्षण खत्म हो जाता है और फिर अगली रोटी के रूप में हमें कोई नयी वस्तु दिखाई देने लगती है।
इस प्रकार अनेकानेक वस्तुओं का अम्बार लगाते हुए कभी भी इस विषय पर जरा भी विचार नहीं कर पाते कि जब वे वस्तुएं हमारे पास नहीं थीं और उन वस्तुओं में हमारा घोर आकर्षण था, किन्तु उन वस्तुओं के हमारे जीवन में प्रवेश पाते ही हमारा वह आकर्षण खत्म कैसे और क्यों हो गया ?? यहां तक कि हमने अपने ही शौक से लायी गयी उन समस्त वस्तुओं को देखना भी छोड़ दिया ! आखिर इसका कारण क्या है ? लेकिन, हमारे मन में ऐसे विचार आना तो बहुत दूर की बात है, बल्कि जैसे ही किसी वस्तु के हमारे निकट आते ही उसमें हमारा आकर्षण खत्म हो जाता है और हम फिर से एक नयी वस्तु की कामना करने लगते हैं। इस प्रकार एक के बाद एक, एक के बाद एक, एक के बाद एक हमारी कामनाएं, हमारी इच्छाएं बढ़ती चली जाती हैं। किन्तु, कभी भी हमारी उन इच्छित वस्तुओं के हमारे जीवन में आने के पश्चात हमारी बुद्धि उसके बारे में तनिक भी नहीं विचार कर पाती, जो हमें बार-बार किसी अन्य चीज की इच्छा कराती है और इस प्रकार हम वस्तुओं में आनन्द ढूंढते-ढूंढते वस्तुओं का अम्बार पैदा लगाते चले जाते हैं, लेकिन हमें आनन्द नहीं मिलता !! किन्तु ऐसा क्यों है यह हम क्यों नहीं जान पाते ??
क्योंकि, वस्तुओं में आनन्द निहित ही नहीं है ! वह तो केवल और केवल अपने स्वयं के भीतर है और मज़ा यह है कि उसके लिए भी हमें विशेष कुछ करना नहीं पड़ता ! केवल थोड़ा–सा अपने भीतर उतरना और विचारना भर पड़ता है या यूं कहूं कि अपने आप को ईमानदारी से देखना भर होता है और समस्त संसार का सच और अपने भीतर की गहराई खुद ब खुद मालूम चलने लगती है और उस बोधकथा का एक अन्य सार यह भी है कि यदि सचमुच ही उस कुत्ते में बुद्धि होती, तो वह पानी में छलांग लगाने के बजाय उस वृक्ष पर चढ़ने की चेष्टा करता है, जिस पर वह रोटी टंगी हुई थी ! लेकिन, उसने नदी में दिखते रोटी के प्रतिबिम्ब को देख कर नदी में ही छलांग लगा दी और उस रोटी को पाने के प्रयास में वह अंततः मर गया !!
इस प्रकार हमारा आनन्द भी ये रोटियां, ये वस्तुएं नहीं हैं ! हमारा आनन्द न सम्मान में है, न शासन में है, ना मकान में है, ना सम्पत्ति में है, ना दुकान में है ! हमारा आनन्द केवल और केवल हमारे अन्दर है ! हमारे खुद के अन्दर छलांग भर लगानी है और तत्क्षण ही हमें पता चल जायेगा कि हम किन प्रकार की भ्रांतियों में अपना जीवन व्यर्थ बिताये चले जा रहे हैं ! तरह-तरह की प्रतिष्ठा, धन इत्यादि के लिए हमारी जो प्रतिष्ठा प्रतिस्पर्धा दुनिया में, दुनिया से जारी है और उसमें हम अपना अमूल्य समय गंवा दे रहे हैं। यह हमारी बहुत ही बड़ी मूर्खता है ! हम इस मूर्खता से बाहर निकलें और इससे निकलने का साधन वही है, अपने भीतर उतरना। जिस किसी दिन मनुष्य अपने भीतर उतरना सीख जायेगा, आत्म अवलोकन करना सीख जायेगा, उस दिन मनुष्य को अपने आनन्द के लिए इधर-उधर विचरने की, इधर-उधर भागने की और तरह-तरह के साधनों में अपना आनन्द ढूंढने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी !
जब तक मनुष्य अपने भीतर के सद् चित् आनन्द को नहीं समझ पाता, तब तक उसे मनुष्यों के समस्त आडम्बर, ये धन दौलत के अम्बार, ये प्रतिष्ठा उसी प्रकार ये अपने आप को, अपने कुल को, अपने धर्म को और अपने से जुड़े तमाम समस्त उपमानों को एक विशेष प्रतिष्ठा देने की व्यर्थतता समझ नहीं आ पाती ! किन्तु, जिस किसी दिन भी, जिस किसी पल भी उसे आनन्द के इस स्रोत का पता चलता है, उसी क्षण वह बिलकुल एक नये मनुष्य में परिवर्तित हो जाता है ! …और, तब उसे अपने द्वारा किये जा रहे अनेकानेक कार्यों की व्यर्थतता का असल बोध होता है, वैसे ही वह इस सच को जान लेता है कि किस प्रकार वह अपने जीवन के अमूल्य समय को उल्टी-सीधी प्रतिष्ठाओं को पाने के लिए गंवा रहा है। जिस प्रकार जिस क्षण भी हमें यह पता चलता है कि हमारे हाथ में एक जलता हुआ कोयला रखा है, या फिर हमारी जीभ पर जहर की बूंद है, तो हम क्या करते हैं ?…तो, तत्क्षण ही हम उसे हाथ झटक कर उसे गिरा देते हैं या उसे उगल देते हैं ! जीवन की इन शक्तियों का बोध भी इसी प्रकार है। जिस क्षण भी हमें यह बोध होता है, उस क्षण ही हमारे अंदर से बहुत सारी प्रवृत्तियां स्वयंमेव ही विदा हो जाती हैं और हम बिल्कुल ही एक नया जीवन जीने लगते हैं !
इस प्रकार यह बात अपने आप साबित हो जाती है कि हम अपने जीवन को जब कभी भी, जो भी दिशा देना चाहते हैं, यदि हमारे भीतर सच्चाई और ईमानदारी है, तो हम सहज ही उस दिशा की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं। हमें केवल सोचना भर होता है कि हमें पाना क्या है? और जाना कहां है? और जैसे ही हम उसे दिशा की ओर प्रवृत्त होते हैं, हमें मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम होने की बातें करनी ही नहीं पड़ती, क्योंकि जब हम सद्प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होते हैं, तो प्रेम करना जैसी बात नहीं होती, बल्कि प्रेम स्वयं में हमारा स्वभाव बन जाता है !…और, यदि सचमुच ऐसा हो जाये, तो सम्भव है कि मनुष्य आपस में प्रेम से रहने के सुखद रसों की राहों पर चल पड़े और जिस दिन संसार के आधे मनुष्यों में भी ऐसा भाव पैदा हो गया, उस दिन संसार अपने आप ही स्वर्ग बन जायेगा ! उसके लिए किसी कल्पित स्वर्ग या जन्नत या उसमें बसी 72 हूरों अथवा अप्सराओं की कल्पना ही नहीं करनी पड़ेगी ! और ना ही इसके लिए हमें मानव हत्याएं करने को विवश होना पड़ेगा ! जिन हूरों को पाने के लिए हमें स्वयं अपने ही बंधु-बांधवों का रक्तपात करना पड़ता हो ! जिसके लिए हमें अपने ही धर्म के श्रेष्ठ होने का व्यर्थ का अहंकार पालना पड़ता हो और जिसके लिए हमें दूसरे धर्म के लोगों के लिए नफरत तय करनी पड़ती हो !
…तो, इस प्रकार घृणा और नफरत के बीज बोते चले जाते हैं, तो जिस प्रकार किसी पौधे की कोई शाख काट देने पर उसमें कई शाखाएं निकल आती हैं ! इसी प्रकार नफरत के बीज जो हम होते हैं, तो उसके परिणाम स्वरूप, उसके कारण होनेवाले रक्तपात से उससे भी कई गुना घृणा व नफरत की फैसलें पैदा हो जाती हैं ! काश हम यह मामूली-सी सच्चाई को समझ लेते ! काश…हम सचमुच धर्म की गहराई को समझते हुए धर्म को प्राणी मात्र के हित का कारक समझ लेते और तदनुरूप अपना व्यवहार करने का प्रयास करते, तो वास्तविक अर्थो में इस धरती पर एक विराट धर्म साकार रूप ले लेता!
किन्तु, इस अनन्त समय में, इस ब्रह्मांड में व्याप्त इस छोटी-सी धरती पर देर कभी नहीं होती ! यदि स्वयं को सभ्य और सुसंस्कृत मनुष्य समझने का भ्रम पाले हुए हम समस्त मनुष्य अब भी अपने भीतर की इन भ्रांतियों को दूर कर एक नयी दिशा की ओर चलने को प्रवृत्त हो पाये, तो एक बार फिर से मनुष्यता इस धरती पर फूलों की तरह खिल-खिल उठे और यह धरती उस स्वर्ग की भांति बन जाये, जिसकी अभी तक हम कल्पना मात्र करते चले आ रहे हैं !!