@राजीव थेपड़ा
मनुष्य सम्भवतः कोई भी हो, अपनी ही पीड़ा से भरा मन भी जब किसी और की पीड़ा देखता है, तो और ज्यादा द्रवित हो जाता है। तब अपनी पीड़ा सदैव तुच्छ मालूम पड़ती है, क्योंकि हमारे सामने इतने सारे लोग, इतनी बड़ी दुनिया और इस दुनिया में घटते तरह-तरह के मार्मिक घटनाक्रम और उनके परिणाम स्वरूप हजारों और लाखों-लाख दुखी और पीड़ित लोग हमें हमारी पीड़ा से बिलकुल से त्राण दे देते हैं और हम उनकी पीड़ा से भर कर बार बार भीग-भीग जाया करते हैं, रोया करते हैं और उनके लिए कुछ करने को छटपटाते-से रहते हैं। लेकिन, हमें हमारा जीवन अपनी ही समस्याओं से बाहर निकलने नहीं देता, तो भी हम अपने बूते जो कुछ भी हमसे बन पड़ता है, वह उनके लिए करने का प्रयास करते हैं और इस तरह अपने जीवन को सार्थक बनाने का एक महत्ती प्रयत्न करने के प्रयास करते रहते हैं।
यद्यपि, इन प्रयत्नों में हर प्रयत्न हमेशा पूरी तरह सफल भी नहीं होता, किन्तु फिर भी ऐसा करते हुए हम अपने किसी अपराध भाव को भूलने का प्रयत्न करते हैं। समाज में सामाजिक होना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी ही नहीं, अपितु एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य भी है। इस जिम्मेदारी के निर्वहन में हमारा चरित्र ही हमारी सबसे बड़ी कसौटी है। हम जो कुछ भी बनाना चाहते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि हमारे चरित्र की उज्ज्वलता ही वह सब कुछ तय करती है। यदि हमारे चरित्र में वह बात नहीं, तो हम भी और लोगों की तरह, पशुओं की तरह जीते हुए, खाते हुए, वासना से भरे विभिन्न लोगों से संसर्ग करते हुए, पीते हुए, झूमते हुए, नाचते हुए और झूठ-मूठ के तरह-तरह के कार्य-व्यापार करते हुए इस दुनिया से प्रस्थान कर सकते हैं। लेकिन नहीं, ऐसा प्रस्थान हमारे गिल्ट को और ज्यादा बढ़ा देगा, इसलिए ऐसा करने में हम सक्षम नहीं होते !!कुल मिला कर हम जैसे लोगों का जीवन हर वक्त जैसे दो नावों पर सवार जीवन होता है और इस जीवन रूपी सागर की लहरों पर कभी इधर-कभी उधर लहराते, डोलते, मचलते हम किसी तरह अपना यह जीवन पूरा करने के प्रयास में लगे रहते हैं। मगर, हमारे द्वारा किये जा रहे ये सारे प्रयास कहां तक सफलीभूत होते हैं, यह तो सम्भवतः ईश्वर ही बता सकता है !!