राजीव थेपड़ा
जैसे ही हम जन्म लेते हैं, वैसे ही हमारे अन्दर जीने की एक अद्भुत जिजीविषा का जन्म भी हो जाता है और जन्म लेने के पश्चात हम जब तक जीवित रहते हैं, तब तक मृत्यु से भय खाते हैं। किन्तु, शायद ही कभी हमने इस बात पर थोड़ा भी विचार किया हो कि हम अपने छुटपन से, यानी जीवन के प्रारम्भ से ही किस प्रकार अपने से बड़ों के छोटे-छोटे प्रोत्साहन और प्रेरणा से न जाने कितनी ही चीज़ें सीखते हैं और हमारे बड़े होते-होते वही सारी चीजें हमारा सामर्थ्य बन जाती हैं। थोड़ा सोच कर देखिए कि आपके जीवन के आरम्भ में किस प्रकार आपके माता-पिता अपने लाड़ प्यार, अपने अनन्त और गहरे प्रेम द्वारा छोटी-छोटी बातों से प्रोत्साहन देते हुए आपको न जाने कितना कुछ सिखाते हैं। बोलना, गाना, नाचना, चलना, दौड़ना, खाना और अन्य वे सभी बातें, जिनसे आप जीवित रहते हैं और आनेवाले दिनों में यही सामर्थ्य आपकी शक्ति बन जाती है। लेकिन, जैसे ही हम जीवन में आगे बढ़ते हैं। सबसे पहले इन्हीं बातों को भूलना शुरू करते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि हम सब का जीवन नीरस होने लगता है। ध्यान रहे, हम सब, हम सभी के साथ हंसते-बोलते-गाते-बतियाते-नृत्य करते, अर्थात अपनी सामूहिकता में अधिक सुखी होते हैं। संसार में ऐसा कोई नहीं है या ऐसे कम ही लोग होंगे, जो अपने आप में सुखी हैं। अपने आप में मस्त हैं। अपने आप में आनन्दित हैं। हमारी समूची सामाजिकता हमारे समाज के रूप में निरन्तर भांति-भांति के उत्सवों में, आनन्द में, सुखों में एक-दूसरे के साथ हाथ में हाथ डाले, रिश्तों के रूप में ही दिखाई देती है। कुल मिला कर हमारा यह समूचा संसार हमारे आपस के रिश्ते ही तो हैं।
किन्तु, मनुष्य में एक बहुत बड़ी कमी यह भी है कि वह स्वयं तो कुछ विशेष बनना चाहता है, होना चाहता है। किन्तु, किसी दूसरे को विशेष होता देख कर ईर्ष्या से भर जाता है। हमारी यही ईर्ष्या सामाजिकता की, हमारे सामंजस्य की, हमारे सौहार्द की इस संसार में सबसे बड़ी बाधा है। यदि हम अपनी उन ईर्ष्याओं को पहचान लें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें, तो हमारे बीच, हमारे अंतर सम्बन्धों के समस्त पुष्प सदैव पुष्पित रह सकते हैं। किन्तु, हमें कभी भी इन वास्तविकताओं का भान ही नहीं होता। क्योंकि, हम अपनी उस ईर्ष्या को, उस अहंकार को कभी भी पकड़ नहीं पाते। इस प्रकार नित प्रतिदिन समाज का हरेक व्यक्ति अपनी ही ईर्ष्या के चलते सामाजिक होना चाहते हुए भी सामाजिकता से दूर होता चला जाता है ! यद्यपि, वह दिखावा ऐसा करता है कि उससे बड़ा सामाजिक कोई नहीं !
सब कुछ जानते-समझते हुए भी हम इस बात को सदैव अनदेखा कर देते हैं कि यह जो परिवार है, यह जो समाज है, यह केवल और केवल हमारे प्रोत्साहन से आगे बढ़ता है। प्रोत्साहन ही वह अद्भुत शक्ति है, जिससे न केवल किसी को एक सम्बल प्रदान होता है, बल्कि वह सम्बल किसी को कहां से कहां तक पहुंचा सकता है, इसके भी लाखों लाख उदाहरण हमारे समाज में सदैव व्याप्त रहे हैं। जैसा कि इस आलेख के आरम्भ में बताया गया कि हम अपने जीवन के प्रथमार्ध से ही अपने माता-पिता के विभिन्न प्रोत्साहनों से वे सभी बातें सीखते हैं। जो हमें बोलना सीखना से लेकर समाज के बीच अपना स्थान बनाने तक में सदैव सहायता प्रदान करती है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि हमारा किसी को दिया गया प्रोत्साहन उन्हें कहां से कहां पहुंचा सकता है। किन्तु, इस सम्भावना के बारे में पूर्व में शायद ही हम कभी जान पाते हैं। इसके लिए हमें समस्त महापुरुषों की कथाओं को पढ़ना चाहिए। जिनसे हमें यह पता चलता है कि किस प्रकार किन लोगों को किन प्रोत्साहनों ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ाने को प्रेरित किया और समय-समय पर मिलते गये उन प्रोत्साहनों ने उन्हें अंततः एक ऐसे लक्ष्य पर पहुंचा दिया, जिसके विषय में उन्होंने स्वप्न में भी कभी सोचा ना था। हमारे समाज में हर कोई किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है। उनके साथ तरह-तरह की घटनाएं घटती रहती हैं। बहुत सारी घटनाएं उन्हें विचलित भी करती हैं। बहुत सारी घटनाएं और समस्याएं या संघर्ष उन्हें गहरी परेशानियों में यहां तक कि निराशा के गर्त में भी धकेलती हैं। वैसे में उनके किसी निकट सम्बन्धी, मित्र अथवा किसी के भी द्वारा बोले गये प्रोत्साहन के कुछ शब्द उन्हें वापस उनकी पूरी शक्ति के साथ उन सभी बाधाओं से लड़ने के लिए पुनः खड़े कर देते हैं। न केवल इतना ही, बल्कि प्रोत्साहन के लिए कहे गये वे कुछेक शब्द कभी-कभी उनके भीतर एक छाप बन जाते हैं और तो और, कभी-कभी कुछ बातें उनके लिए इतनी मूल्यवान हो जाती हैं कि केवल उन कही गयीं कुछ बातों को अपनी शक्ति बना कर वे उस लक्ष्य को हासिल कर देते हैं, जो एक आम व्यक्ति, साधारण व्यक्ति कभी नहीं कर पाता !
इस प्रकार वह भी असाधारण नहीं थे, लेकिन उन्होंने प्रोत्साहन में छिपे उन शब्दों की शक्ति को अपनी शक्ति बना ली और फिर जिनके द्वारा प्रोत्साहन के वे शब्द कहे गये थे, वह व्यक्ति भी उनके लिए एक ईश्वर के समान बन जाता है। जिसकी प्रशंसा वे अपनी अंतिम सांस तक करते हैं। तो आगे से हम जब भी किसी को कुछ भी करते देखें, हमारे आसपास, दूर-दराज, अपने बच्चों को, दोस्तों को, पड़ोसियों को, किसी को भी कुछ भी करते देखे और यदि वहां पर वह थोड़ी-सी कमजोरी महसूस करें, तो उन्हें अपने केवल थोड़े से प्रोत्साहन भरे शब्दों द्वारा वापस इस शक्ति को देने का प्रयास करें। जिस प्रकार एक और एक ग्यारह का मुहावरा होता है, उसी प्रकार प्रोत्साहन का एक साधारण-सा वाक्य भी किसी व्यक्ति को कभी-कभी एक और एक ग्यारह के समान बना डालता है। इसलिए हमें यदि अपने समाज को वास्तविक रूप से मूल्यवान बनाना है…समर्थ बनाना है…सजग बनाना है, तो हमें अपने शब्दों में सभी के लिए प्रशंसा का भाव रखते हुए ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिससे उस व्यक्ति को अपने मूल्य का एहसास हो, अपनी क्षमता का एहसास हो और उसे यह लगे कि मैं जो करना चाहता हूं, वह कर सकता हूं।
कुल मिला कर यही कि एक छोटी सी सराहना, एक थोड़ी सी प्रशंसा यदि किसी का मन, मस्तिष्क और हृदय बदल सकती है। तो हमें अवश्य ही ऐसा करना चाहिए। क्योंकि, हम सब एक-दूसरे की सहायता के लिए ही तो यहां पर हैं ! कब किसको किस बात की आवश्यकता पड़ जाये ! कब कौन किस बात से प्रेरित हो जाये ! कब कोई किसी प्रेरणा द्वारा आसमान की ऊंचाइयां स्पर्श कर ले ! कितना अच्छा हो, यदि ऐसा हो ! कितना अच्छा हो, यदि हम ऐसा करें ! क्योंकि, इस धरती पर मनुष्य को सबसे अधिक प्रेम युक्त सराहना की ही तो आवश्यकता है।