राजीव थेपड़ा
हमारे साथ दिक्कत यह है कि जो सत्ता के शीर्ष पर होते हैं, वे ऑटोमेटिकली जीनियस हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, सिर्फ वही श्रेष्ठतम है, उसके अलावा कुछ भी होता, तो वह गलत होता और तब यह शीर्षस्थ लोग अपने मत से अलग कुछ भी कहनेवालों को घटिया मानसिकता का या देशद्रोही का या यथास्थितिवादी का तमगा दे देते हैं !! एक बात और है कि यूं तो बहुत सारे लोग अध्ययनशील होते होंगे, लेकिन अध्ययनशीलता और जिन्दगी की प्रैक्टिकलिता, इन दोनों चीजों में तालमेल बिठा पानेवाले, इन दोनों चीजों के जोड़ को युक्तिसंगत बनानेवाले विचारों का उनमें प्रादुर्भाव हो ही, यह कतई जरूरी नहीं होता ! हम लोग भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अपनी सारी जिन्दगी विभिन्न विषयों का सिलसिलेवार अध्ययन किया है, सही गलत का अर्थ भी समझते हैं, बहुत कठिनाइयों से विभिन्न व्यापारों द्वारा अर्थोपार्जन करते हुए उन समस्त क्षेत्रों की दुरूहताओं को व्यापक रूप से समझते हुए बहुत सारी प्रैक्टिकिलिटी को जाना व समझा है और कहीं न कहीं देश के लिए एक सुस्पष्ट विजन भी रखते हैं। लेकिन, सवाल यह है कि वास्तव में विजन रखनेवाले लोगों के लिए क्या कोई प्लेटफार्म उपलब्ध है ?? किन्ही मंच द्वारा हम अपनी आवाज़ रखने का प्रयास भी करते हैं, तो चूंकि हम दुनियावी तौर पर कुछ भी नहीं है, इसलिए हमारी आवाज का हमारे विजन का कोई प्रभाव या महत्त्व लोगों पर परिलक्षित नहीं होता और सत्ताधिकारियों तक तो हमारी आवाज़ पहुंचती ही नहीं !!
तीसरी बात, सत्ता का तौर-तरीका अब कुछ ऐसा हो गया है कि वह मनमाफिक तरीके से काम ही नहीं करती, बल्कि अपने समर्थकों द्वारा और विभिन्न संचार के माध्यमों द्वारा जनमाध्यम पर छा जाना चाहती है, जनमानस को अपने अनुकूल कर लेना चाहती है और जो कोई उसके अनुकूल नहीं दिखाई देता, उसे उसकी “असली” जगह पहुंचा देने में भी सत्ता को कोई गुरेज नहीं होता !!
…तो समस्या दरअसल यही है कि दुनिया की हर एक सत्ता को अपने जीनियस होने का अहंकार बहुत बुरी हद तक होता है और उसे अपने अलावा हर तरह के मतभिन्नता वाले लोग निहायत ही दोयम मालूम पड़ते हैं !! उसी प्रकार हम समझते हैं कि वास्तव में नोट-बंदी एक ऐसा कदम साबित हुई है, जिसमें खोदा तो पहाड़ गया है, मगर निकली चुहिया भी नहीं !! उसी प्रकार अर्थव्यवस्था का डिजिटाइजेशन एक बहुत बुरा कदम साबित होने जा रहा है जीडीपी के लिए, बेहतर हकीकत तो यह है कि पुरानी व्यवस्था में भी ऐसी कोई कमी नहीं थी, बल्कि उसमें भी यही बदलाव करते हुए सिर्फ उसे कड़ाई से लागू कर दिया जाता, तो सरकार को पर्याप्त राजस्व प्राप्त होता !! क्योंकि, शायद ही सरकारों को यह मालूम हो कि इस जीएसटीएन के चक्कर में पूरे देश के समस्त व्यापारियों की करोड़ों रुपये की स्टेशनरी, जो वैट नम्बर के नाम से छपी हुई थी, एकदम से एक पल में बर्बाद हो गयी और अब इस सारी स्टेशनरी के लिए नये सिरे से करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, डिजिटाइजेशन के लिए कम्प्यूटर-लैपटॉप-प्रिंटर इन सब का खर्चा अलग से हो रहा है ,क्योंकि जिस प्रकार की अंदरूनी व्यवस्था जीएसटीएन के अंदर है, उसमें बगैर कम्प्यूटराइज़ेशन काम के हिसाब-किताब निकालना ही असम्भव हो जायेगा और अब व्यापारी के व्यापार का एक बहुत बड़ा हिस्सा सिर्फ हिसाब-किताब करने पर ही खर्च होगा, निश्चित तौर पर इससे व्यापार में कुछ हानि होगी और यह हानि भी तो दरअसल राजस्व की हानि ही हुई !!
सबसे बढ़ कर बात यह है कि कम्प्यूटर लैपटॉप इत्यादि में कुल खर्चा कम से कम 50000 का है और उसके अलावा वकील को दिया जानेवाला खर्च वगैरह मिला कर हर व्यापारी की अर्थव्यवस्था पर जो बोझ पड़ रहा है, वह मंझोले स्तर के करोड़ों व्यापारियों के लिए कमर तोड़ देने वाला सिद्ध हो रहा है, इन सबसे बेहद आसानी से बचा जा सकता था, केवल पुरानी व्यवस्था में विभिन्न सुधार करके, लेकिन होता यह है कि सरकार के ही कारिंदे/अधिकारी विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी फरमान या कानूनों को लागू ना होने देने के एवज में सम्बन्धित क्षेत्रों से मनमाना “निजी-शुल्क” हासिल करते हैं, निजी शुल्क देने के बाद (जिसे एक शब्द में रिश्वत कहा जाता है) व्यापारी हों या कोई और, वे सब के सब अपना मनमाना सब कुछ करने के लिए मुक्त हो जाते हैं !!…तो जब किसी क्षेत्र में कभी कोई कड़ी कार्रवाई नहीं होती, उसमें एक व्यापक झोल, एक व्यापक व्यतिक्रम, एक व्यापक ढीला-ढालापन पैदा हो जाता है, जो किसी भी क्षेत्र में हो, देश की सेहत के लिए और खुद उस क्षेत्र की सेहत के लिए ; दोनों के ही लिए बेहद मारक होता है !! भारत के मामले में भी यही हुआ है, किसी भी क्षेत्र में कानूनों की कोई कमी नहीं है, लेकिन उन्हें तरीके से लागू करने की इच्छा-शक्ति कभी किसी सरकार में नहीं रही !!
हम सवा अरब लोग इतने बेतरतीब तरीके से भारत की इस सो कॉल्ड पुण्य भूमि पर रहते हैं कि हम सब एक-दूसरे के लिए बाधा उत्पन्न करते हैं, कठिनाइयां पैदा करते हैं, अंततः एक-दूसरे के विकास के लिए भी रोड़ा बनते हैं !! साधनों की छीना-झपटी, अपनी काहिली की वजह से व्यवस्था में भरते नकारापन, अपनी अदूरदर्शिता के कारण अपने ही क्षेत्र में कुछ नहीं कर पाने की नाकाबिलियत और सबसे बढ़ कर हमारा वह भ्रष्ट चरित्र, जो हर क्षेत्र में पर्याप्त से कहीं कई गुना ज्यादा वेतन लेने के बावजूद अपना ही काम करने के लिए अपने क्लाइंट से रिश्वत खाने को आतुर रहता है !! हमारे शिक्षक हों या डॉक्टर हों या इंजीनियर हों और सबसे बढ़ कर राजनेता ही क्यों न हो ,(कोई भी क्यों हो) ये देश की समृद्धि के लिए, देश की प्रगति के लिए देश के गौरव के लिए नहीं काम करते, बल्कि सिर्फ और सिर्फ अपनी तिजोरी के लिए, अपनी प्रगति के लिए, अपने यश के लिए काम करते हैं !! …तो, ऐसे में भला कोई भी व्यवस्था कैसे समृद्ध हो सकती है, सुदृढ़ हो सकती है !!
70 सालों में इस देश में कोने-कोने में न जाने कितनी ही तरह के कंक्रीट के इंफ्रास्ट्रक्चर बने, उनमें से कितने तो असमय ही धराशाई हो गये, उनमें से कितनों का कोई सदुपयोग ही नहीं किया गया और उनमें से कितने ही सिर्फ कागजों पर बने, जिनका पैसा सम्बन्धित लोगों की तिजोरियों में गया, यह इंफ्रास्ट्रक्चर भी इसलिए बना, क्योंकि इसमें देने-लेने की पर्याप्त सम्भावनाएं थीं !! सड़क बनानी हो, तालाब बनाना हो, पुल बनाने हों, सरकारी भवन बनाने हों, इन सबको बनाने में मिलने वाला मोटा पैसा इन्हीं को उचित-रूपेण बनाने में बाधक हो गया !! मतलब कि कोई चीज बन रही है, तो वह कैसी बन रही है, इससे किसी को कोई सरोकार ही नहीं !! बल्कि उसकी मार्फ़त नेता की जेब में पैसा जा रहा है, इंजीनियर की जेब में पैसा जा रहा है, ठेकेदार की जेब में पैसा जा रहा है !! …तो इसका अर्थ यह हुआ कि जब आपके भीतर नैतिकता का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद नहीं होता, तो आप अपने बाहर भी कोई मजबूत और बढ़िया इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बना सकते !!
सिर्फ और सिर्फ ईमानदारी से किया गया कोई भी कार्य ही अंदर और बाहर वह इंफ्रास्ट्रक्चर पैदा करता है, जिसकी कोई मिसाल भी ना मिले !! लेकिन, अंदर से ही जो लोग भ्रष्ट हैं, वे बाहर कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बना सकते ; भले ही किसी ” ड्रैगन ” से अपनी तुलना क्यों न कर लें !! तुलना एक तरह-तरह के क्षेत्रों में तरह-तरह से की जा सकती है, लेकिन तुलना करना महज शब्दों का खेल भर होता है और जीवन कोई खेल नहीं है और देश तो बिलकुल भी खेल नहीं है। यदि इसे अब भी खेल होने से बचाना हो, तो हम सब भारतीयों को, जिसमें हर एक क्षेत्र के लोग हैं, को न केवल अपने विजन को सुधारना होगा, बल्कि यहां के सवा अरब लोगों की इच्छाओं के अनुरूप ऐसे विकास को धरातल पर उतारना होगा, जिसमें कम से कम 50 करोड़ लोगों के हाथों में काम हो, रोजगार हो, वह फ्री न रहे, तभी इस देश की समृद्धि सही मायनों में बढ़ सकती है ; वरना तो नोटबंदी हो या जीएसटी, सरकारी राजस्व में भले ही अभिवृद्धि कर दें, आम आदमी के खाते में शून्य भी नहीं आ पायेगा और इस देश का आम आदमी तमाम सरकारों के बनते -बिगड़ते रहने के बावजूद इतना बड़ा शून्य होगा कि जिसके पास सिवाय तिरस्कार और अपमान भरी जिन्दगी के अलावा कुछ ना होगा !! सदा की तरह चंद लोग ही इस देश पर राज करेंगे। जैसा कि हम देख सकते हैं कि इन दोनों का हो भी रहा है। भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था एक्चुअली आम लोगों की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था नहीं ; अपितु बड़े से बड़े लोगों की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और आम आदमी इस अर्थव्यवस्था में कहां पर है, यह कोई नहीं बता सकता। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि आनेवाले दिनों में चंद लोगों की बढ़ती अमीरी के खिलाफ आम जनमानस में एक विद्रोह न पनप जाये और तब इस परिस्थिति में देश का सूरत-ए-हाल क्या होगा, बताया नहीं जा सकता !!