Patna news : कला की दुनिया तपस्या और साधना की मांग करती है। जो ऐसा करने में अपने को झोंक देते हैं, उन्हें आज नहीं तो कल पूरी दुनिया स्वीकार कर लेती है। बिहार के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। एक छोटे से गांव में जन्मा छोटा सा कलाकार अपनी कला को मांज कर इतना निखार दिया कि पूरी दुनिया में उसकी कला की चर्चा होने लगी। हिंदी में किसी को शेक्सपियर नहीं कहा गया, लेकिन हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर कहा है।
नृत्य मंडली का बने हिस्सा
भोजपुरी भाषा से प्यार करने वाले हर शख्स के लिए भिखारी ठाकुर का सम्मान अटूट है। नाटक और अभिनय बचपन से ही उनके भीतर कुलबुला रहे थे। किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया था। कहा जाता है कि लुक-छिपकर वह नाच देखने चले जाते थे। नृत्य-मंडलियों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी अदा करने लगे थे। लेकिन, मां-बाप को यह कतई पसंद न था। एक रोज गांव से भागकर वह खड़गपुर जा पहुंचे। इधर-उधर का काम करने लगे।
30 साल की आयु में की विदेसिया की रचना
कहा जाता है कि मेदिनीपुर जिले की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देख-देखकर उनके भीतर का सोया कलाकार फिर से जाग उठा। उसके बाद कल की साधना की यात्रा शुरू हो गई। भिखारी ठाकुर जब गांव लौटे तो कलात्मक प्रतिभा और धार्मिक भावनाओं से पूरी तरह लैस थे। परिवार के विरोध के बावजूद नृत्य मंडली का गठन कर वह शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने विदेसिया की रचना की। इसकी लोकप्रियता ने भिखारी ठाकुर को शिखर पर पहुंचा दिया। उत्तर बिहार के छपरा शहर से लगभग दस किलोमीटर पूर्व में चिरान नामक स्थान के पास कुतुबपुर गांव इस कलाकार की चर्चा हर जुबान पर होने लगी।
लंबी कला यात्रा, उच्च कोटि की रचनाएं
वर्ष 1938 से 1962 के बीच भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएं छपीं। इन किताबों को लोग फुटपाथों से खरीदकर खूब पढ़ते थे। अधिकतर किताबें दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावड़ा) और कचौड़ी गली (वाराणसी) से प्रकाशित हुई थीं। नाटकों व रूपकों में बहरा बहार (विदेसिया), कलियुग प्रेम (पियवा नसइल), गंगा-स्नान, बेटी वियोग (बेटी बेचवा), भाई विरोध, पुत्र-वधू, विधवा-विलाप, राधेश्याम बहार, ननद-भौजाई, गबरघिचोर उनकी मुख्य रचनाएं हैं।