Jharkhand news, Bihar news : पूरे देश में बिहार हमेशा से अपनी राजनीति के लिए एक नए प्रकार का केंद्र रहा है। जॉर्ज फर्नांडिस कहते थे कि देश में जब कोई बड़ी घटना होने वाली होती है, तो इसमें पूरे देश को बिहार रोशनी दिखता है। आज के समय में यदि पूरे देश में चर्चित मुख्यमंत्री के बारे में हम सोचें तो नीतीश कुमार ही पहले नंबर पर आते हैं। इतने लंबे समय तक बिहार में कोई चीफ मिनिस्टर नहीं रहा और जितनी बार उन्होंने इस पद की शपथ ली, उतनी पूरे देश में किसी मुख्यमंत्री ने नहीं ली। यह एक उदाहरण है, लेकिन हम बता रहे हैं आपको बिहार के एक दूसरे मुख्यमंत्री के बारे में जो काफी चर्चित रहे। वह बिहार के चौथे मुख्यमंत्री थे और उन्हें जमींदारों का दुश्मन कहा जाता था। उनका नाम था कृष्ण बल्लभ सहाय प्यार से उन्हें केबी भी कहा जाता था।
पिता अंग्रेजी राज्य में दारोगा थे
जानकारी के अनुसार, केबी सहाय का जन्म पटना में फतुहा इलाके में हुआ था। वर्तमान झारखंड के हजारीबाग से इनका गहरा नाता था। उनका परिवार हजारीबाग में बस गया। पिता अंग्रेजी राज में पुलिस दरोगा और बेटा अंग्रेजी राज के खिलाफ कांग्रेस का सिपाही।असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो समेत सभी बड़े आंदोलनों में हिस्सा लिया। जेल गए और यहीं मिले उन्हें किसान सभा वाले कद्दावर कांग्रेसी नेता श्रीकृष्ण सिंह 1937 में जब श्रीकृष्ण सिंह ने बिहार में पहली कांग्रेस सरकार बनाई तो लेजिस्लेटिव काउंसिल के मेंबर केबी सहाय उनके सचिव बने।
बिहार में लागू हो गई जमींदारी उन्मूलन प्रथा
जमींदारी प्रथा उन्मूलन के लिए केबी सहाय के ड्राफ्ट पर श्रीकृष्ण सिंह कैबिनेट ने मंजूरी दी और देश से भी पहले बिहार में ये प्रथा खत्म कर दी गई। वो बात और है कि बाद में ये एक्ट पटना हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में ध्वस्त हो गया और दूसरे कानूनों के लिए रास्ता बना। इन सबके फेर में एक बात तय हो गई। जमींदारों की केबी सहाय से रार।
1952 में हार गए चुनाव
सहाय के होम डिस्ट्रिक्ट हजारीबाग की एक रिसायत रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह और दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह इस जुट्ट को लीड कर रहे थे। इसी गोलबंदी के चलते 1952 में गिरडीह से आसानी से चुनाव जीते केबी सहाय 1957 में हार गए। उन्हें कामाख्या नारायण ने पटखनी दी। उधर, पटना में सहाय के नेता अनुग्रह नारायण को श्रीबाबू विधायक दल के नेता के चुनाव में पटखनी दे चुके थे। ऐसे हालात में केबी सहाय संगठन की राजनीतिक तक सीमित रहे। 5 साल बाद पटना की एक सीट से जीतकर केबी सहाय विधानसभा में पहुंचे।
2 अक्टूबर 1963 को बन गए चीफ मिनिस्टर
1963 में कामराज प्लान के तहत बिहार के मुख्यमंत्री विनोदानंद झा का इस्तीफा हो गया।
सहाय ने अपने जिगरी यार रामलखन यादव के सहारे पिछड़ा वर्ग के विधायकों में भी माहौल बनवाना शुरू कर दिया। नतीजनत, वीरचंद पटेल की किस्मत का फैसला औपचारिक वोटिंग से पहले ही हो गया। झा और उनका मोहरा मात खा गए और 2 अक्टूबर 1963 को केबी सहाय मुख्यमंत्री बन गए।
3.5 साल तक रहे चीफ मिनिस्टर
बतौर मुख्यमंत्री केबी सहाय का कार्यकाल लगभग साढ़े तीन साल का रहा। इस दौरान दिल्ली ने भी तीन प्रधानमंत्री देख लिए। नेहरू और शास्त्री से होते हुए कमान अब इंदिरा के हाथ थी। बिहार में छात्रों से हिंसक झड़प के बाद एक दिन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज पटना पहुंचे। उन्होंने के बी सहाय से छात्र हिंसा की न्यायिक जांच करवाने को कहा। इस पर सहाय ने अपना इस्तीफा उनके सामने रख दिया। कामराज ने इस्तीफा डस्टबिन में डाल दिया। कुछ ही महीनों बाद हुए चुनाव में जनता ने कांग्रेस को भी लगभग वहीं पहुंचा दिया। सहाय की कुर्सी भी गई और वह चुनाव हार गए।
सड़क दुर्घटना में हुई मौत
1969 में कांग्रेस बंटी तो वो इंदिरा के उलट ओल्ड गार्ड वाले खेमे में, यानी कांग्रेस ओ में रहे, लेकिन इस राजनीतिक दल का गार्ड डाउन ही रहा। सहाय जीते जी सुर्खियों में एक आखिरी दफा लौटे 1974 में, जब हजारीबाग से स्थानीय निकाय क्षेत्र से विधान परिषद के लिए चुने गए। इस जीत के कुछ ही महीनों बाद 5 मई 1974 को पटना से हजारीबाग जाने के रास्ते में एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।