Varanasi news : होली शब्द सुनते या मुंह से बोलते ही लोक उत्साह और मस्ती का आलम छा जाता है। गले मिलने का पर्व, गिले-शिकवे दूर करने का पर्व। जब कभी इस दिन या इस मौके पर कोई बड़ी घटना दुर्घटना में गम का माहौल उत्पन्न हो जाए तो होली के रंग फीके पड़ जाते हैं और लोग होली मनाना बंद कर देते हैं। भारत में होली की परंपरा इतनी व्यापक है कि इसकी कहानी दर कहानी कहने-सुनने पर समाप्त ही नहीं होती है। बरसाने की होली ब्रज की होली और काशी की होली का क्या कहना। मगर, दो दिन पहले काशी के मणिकर्णिका घाट पर तो होली का गजब का नजारा दिखा। शायद ऐसा नजारा काम ही देखने को मिलता होगा। रंग, चिता, राख, नरमुंड, तांडव और डमरू के डमडम के बीच होली।

नरमुंड की माला पहनकर तांडव
मणिकर्णिका घाट पर इसी प्रकार के आलम में रंगोत्सव का प्रारंभ डमरू वादन से शुरू हुआ। एक और जल रहीं चिताएं। रोते-बिलखते परिजन, तो दूसरी ओर डीजे की तेज आवाज और चिता की राख से होली खेलने का दृश्य। इस मसाने की होली कहा जाता है। घाट पर कोई गले में नरमुंडों की माला पहनकर तांडव करता दिखा, तो कोई डमरू की थाप पर नाचता हुआ होली का आनंद ले रहा था। सारे विरोधाभासी भावों का ऐसा मेल शायद ही दुनिया में देखने को मिली।
राख की होली में शामिल हुईं महिलाएं भी
नागा संन्यासियों ने तलवारें और त्रिशूल लहराए। जश्न के बीच से शवयात्रा भी गुजरी। भीड़ इतनी कि पैर रखने तक की जगह नहीं दिखी। सड़कें पूरी तरह से राख से पट गईं।
रंग और राख से सराबोर होकर विदेशी पर्यटक भी झूमते दिखे। दिन में 11 बजे शुरू हुई होली शाम 4 बजे तक चली। 25 देशों से 2 लाख से ज्यादा पर्यटक मसाने की होली खेलने पहुंचे। आम लोग बड़ी संख्या में राख में सराबोर दिखे। महिलाएं मसाने की होली में शामिल नहीं हुईं। खासियत यह की शव यात्रा के बीच भी घाट पर भस्म की होली खेली जाती रही। भस्म की होली के बीच शिव-पार्वती का रूप धारण किए हुए कलाकार भी दिखे।