राजीव थेपड़ा
आदमी के जीवन के संदर्भ में एक बात कहनी मुझे उचित जान पड़ती है कि अब स्त्री की भूमिका पहले से बहुत अधिक जान पड़ती है। साधनों के अंधाधुंध विकास और उनके प्रयोग में पुरुष के प्रभुत्व की अनियंत्रित लालसा ने आदमी को जिस जगह ला खड़ा कर दिया है, जहां पर अब एक बैरियर की जरूरत महसूस होने लगी है और यह बैरियर एक स्त्री ही बन सकती है, क्योंकि पुरुष ने सभ्यता का जो पाठ सीखा है, उसमें प्रभुत्व-सफलता और यश ही उसके मनोनुकूल और अभीष्ट जान पड़ते हैं और यह स्थिति हर गलत और मानवता-विरुद्ध कार्य का भी यथोचित कारण प्लांड कर लेती है। इस व्यवस्था की काट केवल स्त्री या स्त्री-मन रखनेवाले कतिपय पुरुषों के पास हो सकती थी। किन्तु, सफलता व यशोगान से सिंचित विचार-गाथाओं ने मानवता को खाली कर डाला है और अंततः स्त्री भी उसी रास्ते पर चल पड़ी…मूलतः स्त्री का रास्ता भीतर को है और इसीलिए साधू-संत शान्ति और स्वयं के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास तथा मानवता तक के विकास के लिए प्रथमतः भीतर की यात्रा की ओर प्रस्थान करते हैं। जबकि, स्त्री तो स्वभावतः एवं प्रकृतिस्थ भीतर ही अवस्थित होती है। किन्तु, सदियों-सदियों चारों ओर सफलता और यश के गुणगान भरे नानाविध ग्रन्थों ने आदमी के दिमाग को इस तरह कंडीशंड कर डाला है कि यही सोच उचित लगने लगी और इस सोच के तहत हर बात के संदर्भ में संसार में यह विचार प्रतिस्थापित हो गया कि फलां चीज़ के लिए सब कुछ उचित है। शाम-दाम-दंड-भेद और तमाम अनैतिक कर्म भी…! मज़ा यह कि धर्म-ग्रंथों द्वारा इस बात को उचित कहलवा कर आदमी ने अपने सारे अनैतिक कर्म तक को खुद के स्वर्गाधिकारी होने का पर्याय बना डाला। आदमी के हर धर्म-ग्रन्थ तक में अपने अभीष्ट की प्राप्ति हेतु हर कुछ को स्वीकार्य बना डाला गया है। उससे तो जैसे असुरता भी स्वतः महिमामण्डित हो गयी। इसका कारण कुल इतना ही है कि इनके रचने में स्त्री-योगदान है ही नहीं और अब जब हज़ारों बरसों में स्त्री शक्तिशाली हो चली है, तब तक मनुष्य की भाषा केवल और केवल बाज़ार का तर्क ही समझती है और भौतिक सफलता को मनुष्यता की सफलता का पर्याय, किन्तु अन्दर की बात तो यह है कि आत्मा तो शान्ति चाहती है और एक अपार रौशनी। अगर धन-दौलत में यह ताकत होती, तो आदमी को कब की ही शान्ति मिल गयी होती और भौतिक साधनों तथा धन-दौलत से भरापूरा आदमी एक साधन-विहीन आदमी को अपना अतिरिक्त धन दे देना उचित प्रतीत होता। किन्तु, यहां तो मैं देखता हूं कि आटे की दो रोटी खानेवाले और दो गज़ जमीन में समा जानेवाले इंसान को खरबों की दौलत भी कम पड़ती है। और तो और, संचार के असीम साधनों ने उन असंख्यपतियों को नम्बर की लड़ाई करवाते हुए जैसे भगवान का ही दर्ज़ा दे डाला है, जिसके लिए हर कर्म अपेक्षित है। यह आदमी की बुद्धि की जड़ता है और आदमी जब तक इस सोच से बाहर नहीं निकलेगा, उसकी मानसिक बदहाली का कोई निदान नहीं। अगर इस बदहाली से आदमी को कोई बचा सकता है, तो वह स्त्री ही है। किन्तु, वह भी तब, जब वह पुरुष-नियंत्रित इस सोच के बहकावे में न आये और ‘थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है’ की तर्ज़ पर जीने की शैली का विकास करते हुए बच्चों को भी इसी सोच के अनुरूप विकसित करे। यदि मेरी यह सोच पिछड़ी जान पड़ती है तब भी मैं इसके लिए क्षमा प्रार्थी नहीं हूं, क्योंकि मेरी समझ से आदमी की आत्मिक शान्ति के लिए एक यही अंतिम रास्ता है ; कोई इस बात को समझना न चाहे, तो यह उसकी मर्ज़ी………!!!
बाहर के विषयों पर नहीं सोचती स्त्री
जब तुम कहते हो कि बाहर के विषयों पर नहीं सोचती स्त्री
तब वह तुम्हारे ही घर के विषयों पर चिन्तित सोचती होती है !
जब तुम कहते हो कि चुनाव-विश्लेषण वगैरह नहीं करती स्त्री
तब वह तुम्हारे ही बच्चों को खिला रही होती है !
जब तुम कहते हो कि किसी बाह्य घटना पर कोई समुचित प्रतिक्रिया नहीं देती स्त्री
तब तुम्हारे ही परिवार के भोजन का इंतजाम कर रही होती है वह
तुम चले जाते हो जब अपने घर से बाहर
और सूचना दर सूचना करते हो दर्ज़
वह बड़े जतन से तुम्हारा पूरा घर सम्भाल रही होती है !
स्त्री बहुधा अपने लिए कतई नहीं सोचती
वह सोचती है सिर्फ व सिर्फ तुम्हारे, बच्चों और परिवार की बाबत
कि किस तरह चले तुम्हारा परिवार और सुविधाजनक ढंग से
और तब तुम वह सब सोच पाते हो जो कि तुम सोच रहे हो
स्त्री नहीं करती प्रतिकार अक्सर तुम्हारे किसी क्रोध का
नहीं करती प्रतिरोध तुम्हारे विचार और वासना का
तुम अपनी मर्जी की करके खुश हो जाते हो
और वह तुम्हें खुश करके खुश हो लेती है !!
तुम्हारा समूचा शोर करता अभिव्यक्त इतिहास
दरअसल उसी समय स्त्री की इस चुप्पी का इतिहास भी है
स्त्री अगर तुम्हारा काम न निबटाये
तो तुम यह सोचना भी भूल जाओ
कि दरअसल तुम्हे आखिर सोचना क्या है…!