रंगों के त्योहार होली की देश भर में धूम है। हर तरफ रंग-गुलाल उड़ रहे हैं। लोग मस्ती में सराबोर हैं। पर क्या आप जानते हैं कि झारखंड का संथाल आदिवासी समाज 15 दिन पहले से ही यह त्योहार मनाने लगता है। ये समाज पानी और फूलों की होली खेलता है। संथाली समाज इसे बाहा पर्व के रूप में मनाता है। यहां की परंपराओं में रंग डालने की इजाजत नहीं है। इस समाज में रंग-गुलाल लगाने के सिर्फ खास मायने ही हैं। ऐसे में यहां का एक नियम ऐसा है कि हर कोई उससे बचकर रहना चाहता है।
लड़की पर रंग डाला तो..
होली के 15 दिनों तक समाज का कोई युवक किसी लड़की पर रंग नहीं डाल सकता। अगर वह किसी कुंवारी लड़की पर रंग डालता है तो समाज की पंचायत लड़की से उसकी शादी करवा देती है। अगर लड़की को शादी का प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ तो समाज रंग डालने के जुर्म में युवक की सारी संपत्ति लड़की के नाम करने की सजा सुना सकता है। यह नियम झारखंड के पश्चिम सिंहभूम (West Singhbhum) से लेकर पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी तक के इलाके में प्रचलित है। इसी डर से कोई संथाल युवक किसी युवती के साथ रंग नहीं खेलता। परंपरा के मुताबिक पुरुष केवल पुरुष के साथ ही होली खेल सकता है।
प्रकृति की पूजा की परंपरा
इस समाज के लोग बताते हैं कि हमारे समाज में प्रकृति की पूजा का रिवाज है। बाहा पर्व में साल के फूल और पत्ते समाज के लोग कान में लगाते हैं। इसका अर्थ है कि जिस तरह पत्ते का रंग नहीं बदलता, उसी तरह समाज भी अपनी परंपरा का निर्वहन करता रहेगा। बाहा पर्व पर पूजा कराने वाले को नायकी बाबा के रूप में जाना जाता है। पूजा के बाद वह सुखआ, महुआ और साल के फूल बांटते हैं। इस पूजा के साथ संथाल समाज में शादी विवाह का सिलसिला शुरू होता है।
तीर-धनुष की भी पूजा
बाहा पर्व का सिलसिला होली के पहले ही शुरू हो जाता है। अलग-अलग गांव में अलग-अलग दिन बाहा पर प्रकृति पूजा होती है। बाहा का मतलब है फूलों का पर्व। इस दिन संथाल आदिवासी समुदाय के लोग तीर धनुष की पूजा करते हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप पर जमकर थिरकते हैं और एक-दूसरे पर पानी डालते हैं। बाहा के दिन पानी डालने को लेकर भी नियम है। जिस रिश्ते में मजाक चलता है, पानी की होली उसी के साथ खेली जा सकती है।