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शुद्ध भाषा क्या लोगों को दूर करती है?

शुद्ध भाषा क्या लोगों को दूर करती है?

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राजीव थेपड़ा

शुद्ध भाषा क्या लोगों को दूर करती है ? यह प्रश्न बहुत समय से भारत के सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण में तैरता रहा है और यह संदर्भ विशेषतया हिन्दी के सम्बन्ध में अधिक है। हिन्दी बोली एवं भाषा का विकास कहा जाये, या वास्तविक हिन्दी का विलोप कहा जाये, यह भी इसी प्रश्न की सीमा में आता है।

मुगल काल से पूर्व भारत में यह हिन्दी नहीं बोली जाती थी, जो आज उपयोग में लायी जाती है। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में या तो वहां की क्षेत्रीय बोली या फिर वह हिन्दी बोली जाती थी, जिसमें ठेठ क्षेत्रीय/ देशी/ तद्भव शब्द प्रयुक्त हुआ करते थे। मुगलों के आने के पश्चात या फिर उससे भी बहुत पूर्व समय में जब अनेक आक्रांताओं ने यहां आक्रमण किया और फिर वह यही के होकर रह गये और धीरे-धीरे वे यहां के परिवेश में ढल गये और उनमें से जो शक्तिशाली और प्रभुत्व सम्पन्न लोग थे, उन्होंने अपनी ही भाषा को उपयोग में लाते हुए यहां की भाषा में अपनी भाषा के शब्द प्रयुक्त करना शुरू किया। शब्दों का यह संजाल उनके द्वारा लाये गये शब्दों से, जो उनकी अपनी भाषा के थे, हमारे देश में बढ़ता चला गया और धीरे-धीरे हमारी यह हिन्दी भाषा, जिसे विकास के क्रम में कालांतर में खड़ी बोली भी कहा गया, वह इसी का एक परिणाम है।

और कभी-कभी इस विषय पर बहुत गहराई से विचार करने पर भी यह निष्कर्ष स्थापित ही नहीं हो पाता कि जिसे हम हिन्दी भाषा का विकास कहते हैं, वह व्याकरण की उत्पत्ति की दृष्टि से तो अपनी जगह ठीक है, किन्तु बोलचाल में अन्य भाषाओं से आ गये शब्द हिन्दी में इस प्रकार जबरदस्ती थोप दिये गये, क्योंकि तत्कालीन समय में यहां के तत्कालीन शासकों की अपनी भाषा थी, जो किसी और देश से आये थे और फिर वह सैकड़ों साल तक यहीं पर राज करते रहे और इसी क्रम में उन्होंने राजभाषा के रूप में जिस भाषा को प्रयुक्त किया, वह फारसी उर्दू इत्यादि इत्यादि हुआ करती थी और उस काल में, बल्कि स्वाधीनता पक्ष के बाद के 50 वर्षों में भी भारत के उत्तर पश्चिमी भू-भाग में लोग हिन्दी से अधिक उर्दू को जानते, पढ़ते और समझते थे। जम्मू और कश्मीर जो कभी हिन्दू बहुल क्षेत्र होने के कारण हिन्दी से संचालित हुआ करता था। यद्यपि वहां कश्मीरी एवं पश्तो भाषा इत्यादि स्थापित थी ही। किन्तु, कालांतर में वह पूरी तरह से अन्य भाषा-भाषी लोगों के कब्जे में चला गया। वर्तमान में वहां की स्थिति स्पष्ट है।

इसी प्रकार पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात के अनेकानेक क्षेत्रों की पूरी बेल्ट में हिन्दी की अपेक्षा उर्दू के समाचार पत्र बहुत प्रचलित थे और वहां से विस्थापित हुए लाखों लोगों ने अपनी यह आदत देश के अन्य भागों भू-भागों में जाकर भी निरन्तर बनाये रखी और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में किसी समय में उर्दू समाचार पत्रों का बहुत बोलबाला स्थापित हुआ। यहां पर यह देखा जाना समीचीन प्रतीत होता है कि एक समय में उर्दू बहुत ही तीव्रता से यहां पर स्थापित होती गयी। उसकी अपेक्षा हिन्दी का ह्रास हुआ और जो हिन्दी यहां विकसित हुई, उसे हिन्दी किसी भी अर्थ में नहीं कहा जा सकता था और आप कानून की भाषा पढ़ियेगा, तो आपको स्पष्ट दिखाई देगा। पूरी कानूनी भाषा उर्दू, फारसी इत्यादि के ऐसे-ऐसे शब्दों से पटी पड़ी है और उसे साधारण भारतीय तो क्या, एक सामान्य मुसलमान भी नहीं समझ सकता।

इस प्रकार हम यह पाते हैं कि उर्दू की क्लिष्टता को अव्यावहारिक होने के बावजूद बोली और भाषा में इस प्रकार समाहित कर लिया गया, जिसे सिर्फ कानूनविद समझ सकते थे ! आप देखें कि कालांतर में ऐसी बोली विकसित हो गयी, जिसने हिन्दी का लगभग पूरी तरह से लोप कर दिया ! यद्यपि, हम समझते रहे कि भाषा इसी तरह से विकसित होती है और दूसरी भाषाओं से उसमें शब्द समाहित होते हैं ! किन्तु, आप इसे एक दूसरे प्रकार से समझिए ! जब कोई उर्दू वाला उर्दू बोलता है, तो क्या वह अपनी भाषा में तत्सम शब्दों का उपयोग करता है? क्या जब एक अंग्रेजी वाला, स्पेनिश वाला, फ्रेंच वाला भारत की सीमा के भीतर रहते हुए ही जब उन भाषाओं को उपयोग में लाता है, तो क्या वह अपने वाक्यों के बीच हिन्दी के शब्दों का उपयोग करता है ? हमारा उत्तर होगा नहीं !! कदापि नहीं।

इसके पश्चात दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या तब वह भाषा समृद्ध या शक्तिशाली नहीं ? या वह पिछड़ी हुई भाषा कही जायेगी, जो दूसरे की भाषाओं के शब्द आत्मसात नहीं करती ! यद्यपि, इतिहास हमें यही बताता है कि भाषा और बोली विभिन्न समुदायों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के दौरान किसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के शब्दों द्वारा पल्लवित और पुष्पित होती गयी है और इसमें किसी भी प्रकार की लज्जा अथवा गर्व की बात नहीं है ! यह एक सामान्य प्रक्रिया है। किन्तु हिन्दी के सम्बन्ध में हमने इस विषय को कुछ ज्यादा ही अव्यावहारिक बना डाला। यहां हम हिन्दी, यानी अपनी ही हिन्दी भाषा से दूर रह कर उसके बहुत सारे साधारण शब्दों को भी क्लिष्ट समझने लगे। वहीं, दूसरी भाषा के क्लिष्ठतम् शब्दों को भी अपनी बोली में समाहित करने से हमने परहेज नहीं किया !

…तो फिर, प्रश्न यह है कि जब अन्य बोलियों, भाषा वाले लोग अपनी भाषा को अपनी बोली में उपयोग करते समय हिन्दी के शब्द प्रयुक्त नहीं करते, तो हिन्दी को या हिन्दी वालों को ऐसी क्या गरज या भाईचारे की फिक्र पड़ी है या चिन्ता हुई है कि वह इतनी भयानक उर्दू-फारसी और दूसरा प्रश्न यह भी है कि क्या यह भाईचारा केवल हिन्दी वालों को ही निभाना है ? ध्यान रहे कि इन शब्दों को लिखनेवाला यह लेखक कहीं से भी किसी भी दूसरी भाषा के प्रति पक्षपाती नहीं है। ना ही वह किसी भी भाषा या बोली के प्रति दुर्भावनायुक्त है, बल्कि वह स्वयं इन भाषाओं के शब्दों को धड़ल्ले से उपयोग करता है । किन्तु, जब आप अपनी विद्वता दर्शाने अथवा ऐसा कुछ भी जताने के लिए कुछ भी ऐसे शब्दों का उपयोग करते हैं, जबकि उन्हें सुननेवाला अपना माथा पकड़ कर बैठ जाये या जो आम जनमानस की समझ में ही ना आये !!

हम लगातार तरह-तरह की गोष्ठियों में जाते हुए इस बात को लगातार अनुभव करते हैं कि अब हमारी गोष्ठियों में इस भाईचारे के कारण इतने सारे उर्दू फारसी शब्द उपयोग में ले जाते हैं कि दर्शक दीर्घा में या श्रोता दीर्घा में बैठे हुए समस्त लोग लगभग अपना माथा पकड़ कर बैठे हुए रहते हैं ! क्योंकि, वे इसे समझ ही नहीं पाते !! …तो, उर्दू शब्दों की इस क्लिष्ठता को हिन्दी भाषा में प्रयुक्त करना शान का विषय समझा जाता है या आधुनिक हिन्दी समझ जाता है या भाईचारे की मिसाल समझा जाता है ! जबकि, वे शब्द लोगों को समझ नहीं आते! इसके ठीक उल्टा हिन्दी भाषा के तत्सम शब्दों को उपयोग में लाया जाना उतना ही “निन्दनीय” या यूं कहूं कि वीभत्स माना जाता है। क्योंकि, इसे लेकर आलोचनाओं का बाजार इतना अधिक ऊष्ण रहता है कि अच्छी हिन्दी प्रयुक्त करनेवाला कोई भी लेखक या साधारण व्यक्ति लज्जा से जमीन में गड़ जाये !! लोग ऐसी बातें करते हैं या इतना परिहास करते हैं  ! यह तो हिन्दी लिखने और बोलनेवालों की शक्ति और सामर्थ्य है कि वे इसे चुहल के रूप में लेते हैं। किन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी यह सरल भावना भी उनकी निर्बलता समझी जाती है !

यह बहुत विचित्र है, जबकि हमारे पास हमारी भावना को व्यक्त करने के लिए एक से बढ़ कर एक सुन्दर और प्यारे शब्द हैं और हम अपने लोगों के साथ अपना आत्मिक सामीप्य बढ़ाने हेतु उनका उपयोग करते हुए अपनी भावनाओं को सबसे अधिक गहराई से प्रकट कर सकते हैं, इसकी अपेक्षा हम ऐसे शब्दों का उपयोग करते हैं, जो हमें खुद को भी नहीं पता होते ! कई बार उन शब्दों का भाव, उन शब्दों का भार, उन शब्दों की महत्ता, उन शब्दों का व्याकरण और उन शब्दों को उचित स्थान पर प्रयुक्त करना भी नहीं जानते ! ऐसे में हमारे द्वारा कहे गये उन वाक्यों का साधारण जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ता है, हम यह भी नहीं जानते ! लेकिन, हम बड़ी शान से उस विचित्र हिन्दी का उपयोग करते हुए भी अपने आप को विचित्र या अजूबा नहीं समझते !

यहां पर मैं किसी भाषा या बोली के विरोध की बात नहीं कर रहा ! मैं केवल यह कह रहा हूं कि एक भाषा को, जो अपनी परम्परा से लाखों शब्दों के साथ समाहित है और उसमें हमारी भावना को व्यक्त करने के लिए हमारे समान ही अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के ऐसे-ऐसे शब्द उसमें भरे पड़े हैं, जो सभी भाषाओं में समान रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं और सभी भाषाओं में उनका वजन, उनका भार, उनका व्याकरण एक ही प्रकार से हरेक का पाया जाता है। ऐसे में एक दूसरी भाषा, जिसके शब्दों का अभिप्राय हम अच्छी तरह से नहीं समझते, उसका उस तरह से उपयोग में लाना एक प्रकार से भयंकर विरोधाभास प्रतीत होता है ! क्योंकि, जहां हम एक और तो हिन्दी के तत्सम शब्दों की अवज्ञा करते हैं, वहीं दूसरी ओर उर्दू और फारसी के ऐसे-ऐसे शब्दों को उपयोग में लाते हैं, जो उससे भी ज्यादा क्लिष्ट होते हैं !

वास्तव में सत्य तो यह है कि हम पहले तो शासकीय भाषा के चलते धीरे-धीरे इन्हें उपयोग में लेने अभ्यस्त हो गये और फिर यही हमारी वास्तविक भाषा बन गयी। किन्तु यह भी तब तक तो उचित था, जब तक सामान्य उर्दू या फारसी शब्द हम उपयोग में लाया करते थे। लेकिन, अब उस शब्दावली को उपयोग में लाने लगे हैं, जो किसी की भी समझ के बाहर है और यहां तक कि इसके लिए हमें नीचे में उनके अर्थ शब्दों के क्रम दे देकर उनके अर्थ समझने के लिए विवश होना पड़ता है ! क्या यह उचित है ? इस पर ईमानदारीपूर्वक सोचा जाना चाहिए । लेकिन, ऐसा कदाचित ही कभी हो पायेगा। क्योंकि, हम एक पाखंडपूर्ण और ओढ़े गये व्यक्तित्व को इस प्रकार धारण कर चुके हैं कि हम अपना असली व्यक्तित्व भी खो चुके हैं ! जबकि, हम उस वास्तविक भाषा को पूरी तरह तिलांजलि दे चुके हैं, जो हमारी पूरी परम्परा, पूरी संस्कृति और पूरा संस्कार थे !

किन्तु, जैसा कि हम जानते हैं कि इस धरा पर कुछ भी असम्भव नहीं है। मनुष्य ने अब तक असम्भव से असम्भव कार्य किये हैं ! तो कोई भी अच्छा कार्य कभी भी आरम्भ किया जा सकता है और कभी भी उसके लक्ष्य को भेदन भी किया जा सकता है ! …तो क्यों ना हम इस पुनीत कार्य का शुभारम्भ स्वयं ही करें और इसे उस अंत तक पहुंचायें, जहां हमारी मातृभाषा को स्वयं पर ही नहीं, अपितु हम पर भी अभिमान हो कि उनकी संतानों ने उसके साथ सर्वथा न्याय किया है !!

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