अल्पसंख्यक दर्जे की मांग वाली याचिका पर सुनवाई चलेगी
सुनवाई संविधान पीठ से तय परीक्षणों को ध्यान में रखकर होगी
New Delhi news, Aligarh Muslim University : सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने शुक्रवार को साल 1967 के अपने उस फैसले को पलट दिया है, जिसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा हासिल नहीं हो सकता। सात जजों की संवैधानिक पीठ के बहुमत के फैसले में एस अजीज बाशा बनाम केंद्र सरकार मामले में दिए फैसले को पलटा है। हालांकि, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त होगा या नहीं इसका फैसला शीर्ष न्यायालय की एक रेगुलर बेंच करेगी।
डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी। इस पीठ में उनके अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा शामिल थे। शुक्रवार भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश का आखिरी कार्यदिवस था। वह 10 अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। इस पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना भी थे।वह अगले मुख्य न्यायाधीश हैं। सुप्रीम कोर्ट ने साल 1967 में फैसला दिया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त नहीं है, क्योंकि इसकी स्थापना कानून के जरिए की गई थी। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसले को पलटते हुए कुछ परीक्षण भी निर्धारित किए हैं। अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर अगली सुनवाई इन्हीं परीक्षणों को ध्यान में रखते हुए होगी।
संस्थान की स्थापना किसने की
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि व्यापक तौर पर परीक्षण यह है कि संस्थान की स्थापना किसने की, क्या संस्थान का चरित्र अल्पसंख्यक है और क्या यह अल्पसंख्यकों के हित में काम करता है? मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुमत का फैसला सुनाते हुए कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का निर्णय वर्तमान मामले में निर्धारित परीक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए। इस मामले पर निर्णय देने के लिए एक पीठ का गठन होना चाहिए और इसके लिए मुख्य न्यायाधीश के सामने कागजात रखे जाने चाहिए।
एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं
वर्ष 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय सुनाया था, जिसमें कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। संविधान पीठ इसी संदर्भ में सुनवाई कर रही थी। यह मामला इससे पहले एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ के रूप में सुप्रीम कोर्ट में आया था। तब साल 1967 में पांच जजों की संविधान पीठ ने इस पर फैसला दिया था। एएमयू कानून-1920 का हवाला देते हुए अपने फैसले में जजों ने कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। विश्वविद्यालय इसी कानून से संचालित होता है। न तो इसकी स्थापना मुस्लिम समुदाय ने की है और न ही वे इसे चलाते हैं। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए ये अहम शर्त है।
एएमयू की स्थापना एमएयू कानून-1920 के तहत हुई
एएमयू की स्थापना एमएयू कानून-1920 के तहत हुई थी। वह इसी क़ानून से चलता है, तो एक मुद्दा यह था कि इस कानून से बना विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल कर सकता है या नहीं? मौजूदा संविधान पीठ ने आठ दिनों तक इस मामले की सुनवाई की। इसके बाद इस साल पहली फरवरी को अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले साल 2019 में तीन जजों की पीठ ने इस मामले को सात जजों की पीठ को भेज दिया था।
इन वकीलों ने इस मामले में बहस की
एएमयू, एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन और हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील डॉ. राजीव धवन, कपिल सिब्बल, सलमान ख़ुर्शीद, शादान फ़रासत पेश हुए। सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए थे। इस मामले में इनके अलावा भी कई और वकीलों ने जिरह की थी।
पीठ के सामने विचार के लिए चार मुख्य मुद्दे थे
1. क्या एएमयू अधिनयम-1920 के जरिए बना और शासित विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है ?
2. एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का साल 1967 का फ़ैसला कितना उचित है? इस निर्णय में अदालत ने एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा खारिज कर दिया था।
3. बाशा मामले में आए निर्णय के बाद एएमयू कानून में 1981 में संशोधन हुआ। इसने विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया। यह संशोधन कितना सही है?
4. क्या एएमयू बनाम मलय शुक्ला मामले में साल 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा बाशा निर्णय पर भरोसा करना सही था? इसी के तहत उच्च न्यायालय इस फैसले पर पहुंचा था कि एएमयू एक गैर-अल्पसंख्यक संस्थान है। इसी नाते मेडिकल पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई में मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित नहीं कर सकता है।
प्रशासन किसके हाथ में
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि प्रशासन किसके हाथ में है, ये बहुत मायने नहीं रखता है। संविधान का अनुच्छेद 30 (1) अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है कि वे तय कर सकें कि प्रशासन किसके हाथ में होगा? इससे अल्पसंख्यक दर्जे पर किसी तरह का कोई असर नहीं पड़ता है।
केंद्र एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के पक्ष में नहीं
केन्द्र सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि वह एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के पक्ष में नहीं है। सरकार का कहना था कि एएमयू कभी भी अल्पसंख्यक दर्जे वाला विश्वविद्यालय नहीं रहा। इसने कहा था कि जब 1920 में ब्रितानी कानून के तहत एएमयू की स्थापना हुई थी तब ही इसका अल्पसंख्यक वाला दर्जा खत्म हो गया था। यही नहीं तब से अब तक इसका संचालन भी मुस्लिम समुदाय नहीं कर रहा है।
भारतीय संविधान में मूल अधिकार के तहत अनुच्छेद 30 आता है। यह भारत के धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अलग से कुछ अधिकार देता है। इसके मुताबिक, ‘धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
यही नहीं, यह कहता है, ‘शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है। यही अनुच्छेद धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने का अधिकार देता है। इसका उद्देश्य है कि अल्पसंख्यक तरक्की करने के साथ-साथ अपनी खास पहचान बनाए रख सकें। ऐसे अल्पसंख्यक संस्थान अपने समुदाय की बेहतरी के लिए प्रवेश में आरक्षण का प्रावधान कर सकते हैं। आमतौर पर यह भी माना जाता है कि ऐसे संस्थानों में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होगा
अल्पसंख्यक दर्जे से क्या होगा?
अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से विश्वविद्यालय को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह प्रवेश में अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों के लिए 50 प्रतिशत तक के आरक्षण का प्रावधान कर सकते हैं।
मौजूदा समय में एमएयू में सरकार द्वारा तय आरक्षण नीति लागू नहीं है। हालांकि, एएमयू से जुड़े स्कूलों और कॉलेजों के विद्यार्थियों के लिए आरक्षण है। एएमयू कानून में साल 1981 में संशोधन हुआ था, इसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय भारत के मुसलमानों ने स्थापित किया था।
साल 2005 की बात है। अल्पसंख्यक दर्जे का हवाला देते हुए एएमयू ने पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल कोर्स में प्रवेश के लिए मुसलमान विद्यार्थियों के वास्ते 50 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी थी, इसे चुनौती दी गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस आरक्षण नीति को खारिज कर दिया। यही नहीं, उसने साल 1981 के संशोधन को भी निरस्त कर दिया। इसी निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।