राजीव थेपड़ा
किसी भी रिश्ते में पूरी तरह से संतुष्ट कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि मनुष्य दरअसल एक स्वप्रिय जीव है। उसे सबसे पहले अपनी इच्छाएं, अपनी आवश्यकताएं, अपने शौक पूरे करने से मतलब है। तब उसके अनुकूल यदि कोई उसे मिलता भी है, तो भी उससे उसकी थोड़ी सी संतुष्टता बन पाती है। किंतु ऐसा भी सदैव नहीं हो सकता है। मानव स्वभाव एक गतिशील अवस्था है और चंचल भी और चाहे कितने भी एक समान सोचवाले लोग एक साथ क्यों ना हों। किन्तु, एक ही समय पर एक ही तरह का विचार सबके मन में नहीं पनप सकता। ऐसे में एक ही समय पर किसी एक बात पर सहमति कायम हो पाना हर बार सम्भव भी नहीं है और असहमति बहुत छोटी-छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक हो सकती है। प्राय: हम देखते हैं कि बड़ी असहमतियां तो हम सुलझा लेते हैं, लेकिन छोटी-छोटी असहमतियों को पकड़ कर बैठ जाते हैं ! इस प्रकार दोनों पक्ष एक-दूसरे से मुंह फिरा कर बैठ जाते हैं !
मतलब यह कि आये दिन कुछ ऐसा भी घटनाक्रम होना ही है, जो आपके मन के अनुकूल नहीं होना है और उस स्थिति में यदि आपका वह प्रिय पात्र आपके मन की स्थिति के अनुरूप व्यवहार ना करें, तो भी आपका असंतुष्ट होना स्वाभाविक ठहरा ! इसका ठीक उलटा भी इसी प्रकार सच होगा ! तो असंतुष्ट होना एक अलग बात है, लेकिन असंतुष्ट होने के चलते अपनी परिस्थितियों, अपने सम्बन्धों, अपने रिश्तों या संस्थान के लोगों से या अपने भाग्य से नाराज या निराश होना एक दूसरी बात !
हमें हर समय इस बात का स्वभावत: बोध होना ही चाहिए कि जिस प्रकार हम हमारी बात या हमारी सोच को सोच रहे हैं या बोल रहे हैं, उसी प्रकार सामनेवाले के मन में भी हमसे अलग कोई सोच, कोई ख्याल, कोई विचार हो सकता होगा ! इसलिए असहमति भी बिलकुल स्वाभाविक है ! ऐसे में कभी इधर वाला उधर वाले की बात मान ले और कभी उधर वाला इधर वाले की, तो सभी समस्याओं का संधान पल भर में सम्भव है। किन्तु, ऐसा करने के लिए हमारा खुद को सही मानने का हमारा ईगो हमें रोक देता है ! ऐसा भी हो सकता है कि हम सही भी हों, बल्कि सही ही हों, किन्तु सामान्य जीवन में किन्हीं अपनों के साथ, कहां उनकी बात मानी जाये, कहां अपनी बात रखी जाये, कहां कितना चुप रहा जाये, कहां सामने वाले को सुना जाये, कहां जितनी जरूरत हो, उतना ही बोला जाए ! इन सब का विवेकसम्मत खयाल शायद ही किसी को रह पाता है ! हमारे जीवन के अधिकतम झगड़ों का यही एक आधारभूत कारण है !
इसलिए वैवाहिक सम्बन्धों में संतुष्टी के विषय में जो भी लोग बात करते हैं, वह इसकी अपरिपूर्णता को नहीं समझते हैं ! अलबत्ता, खूब लड़ाई-झगड़े के बीच भी अच्छे रिश्ते बने रह सकते हैं ; बशर्ते कि हमारा जीवन साथी समय-असमय अपनी गलती हो या ना हो, किन्तु वह झुकने के लिए तैयार हो जाये। क्योंकि, अपनी गलती ना होने के चलते पैदा हुई ऐंठ भी एक नयी गलती है और ऐसा हमने लगातार होता हुआ पाया है कि गलती करने वाला गलती स्वीकारने के बजाय और भी ज्यादा आक्रामक हो जाता है और यह केवल जीवनसाथी के साथ नहीं है। यह जीवन में प्रत्येक रिश्ते, प्रत्येक संस्थान, प्रत्येक समूह, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक धर्म, प्रत्येक सम्बन्ध के साथ है !
इसलिए रिश्ते हों या सम्बन्ध; समूह हो या संस्थान ; आपस में लाख झगड़ा हो, किन्तु बाद में मान-मनुहार करके रिश्तों को वापस मना लीजिए। वरना हमारा “सो कॉल्ड सच्चा ईगो” भी हमारे रिश्तों को ले डूबता है ! किसी भी सम्बन्ध या रिश्ते में गलती तेरी है या मेरी है, इस बात को लेकर खुद को सामनेवाले के ऊपर हावी करना, यह दरअसल खुद को ही भारी पड़ जाता है ! क्योंकि, जैसे ही हम अपने प्रेमपूर्ण रिश्तों में अपने सही होने के चलते सामनेवाले को गलत ढंग से, गलत टोन में, कोई गलत बात बोलते हुए उसे गलत ठहराते हैं, तो दरअसल हम उसका अपमान करते हैं और यह केवल रिश्तो में नहीं, अपितु यह अपने से कमजोर लोगों के साथ हमारे व्यवहार में भी परिलक्षित होता है और यह हमारे साथ काम करनेवाले हमारे छोटे स्तर के स्टाफ्स, ठेलेवाले, मजदूर, ऑटो वाले, या अन्य कोई भी श्रमिक इत्यादि-इत्यादि लोगों के साथ हमारे व्यवहार में भी लागू होता है !
यद्यपि, इस बात का दूसरा खतरा भी है। और वह यह है कि हम लगातार किसी की गलती होने के बावजूद रिश्ते बनाये रखने की खातिर यदि बार-बार झुक कर इकतरफा रिश्ता बनाये रखने की चेष्टा करते हैं, तो इसमें भी सामने वाला अपने आप में दबंग होता चला जाता है और अपनी गलती ना मानना भी अपना अधिकार समझ लेता है और एक बार जब उसकी यह बात समझ आ जाती है कि उसे अपनी ओर से क्षमा मांगने की आवश्यकता ही नहीं है, अपितु सामनेवाले को ही रिश्ते बनाने की गरज है, तो वह हमें ब्लैकमेल करने लगता है और उसमें हमें ही दबाने की भावना बलवती होती चली जाती है ! किन्तु, इस विषय में हम अपनी ओर से कुछ नहीं कर सकते !
इस प्रकार मनुष्य का अहंकार, क्रोध इत्यादि यह मानवीय स्वभाव है, यह मानवीय संस्कार है।…और, दुर्भाग्यवश, हम सब अपनी समस्त व्यवस्थाओं में यही कंडीशनिंग बनाये रखते हैं। अब जबकि हमें अपनी गलती की ही शर्मिंदगी नहीं होती या अपनी गलती की क्षमा मांगने में ही हम शर्मिंदगी महसूस करते हैं !…तो फिर, गलती ना होने का अहंकार तो उससे भी ज्यादा बड़ा होगा और होगा ही ! अब यह किसमें ज्यादा है या किसमें कम है, इसकी चर्चा करना व्यर्थ है, क्योंकि यह अपने आप में ग्रंथ का विषय है !
इसलिए इस विशद ग्रंथ को न बांच कर एक क्षणिक भर के अपने झगड़े को सुलझा कर हम अपने रोज के जीवन में रत हो जायें, यही हमारे लिए श्रेयस्कर है !! धरती का प्रत्येक स्तनपाई जीव एक सामाजिक जीव भी है और वह सदा समूह में ही अपने आपको प्रेममय और सुरक्षित महसूस करता है और प्रेममय बने रहने की शर्तें प्रेमपूर्ण ही हो सकती है, द्वेषपूर्ण नहीं ! और किसी भी अहंकार, स्वार्थ, लालच या अपने बड़प्पन का बोध हमें हमारे प्रेम को कम करता है !…तो, हमारे रिश्ते अस्वस्थ होंगे ही। अतः, अच्छा यही है कि हम गलती तेरी या मेरी का बोध न करें, न सामनेवाले को करायें। हमारी चेष्टा यही रहे कि आपस के प्रेमपूर्ण संवाद से हमारे सम्बन्ध के बीच उत्पन्न समस्या हल हो जाये !



