डाॅ. आकांक्षा चौधरी
हम सभी साधारण लोग हैं। यहां-वहां जितने भी लोग हैं, सभी साधारण लोग हैं। जब आस-पास हरियाली, पेड़-पौधे देखते हैं, पार्क या गार्डन में घूमना कितना अच्छा लगता है हमें। सुबह जब कान में ईयर फोन लगा कर ऑनलाइन गाने सुनते हुए जब पार्क में मार्निंग वॉक करते हुए चिड़ियों पर नजर पड़ती है, तो कितना सुकून मिलता है। पर्यावरण की ऊष्णता, गर्म हवाएं, ग्लोबल वार्मिंग और ये मोबाइल फोन के टावर ; सब कुछ इस पर्यावरण और इन पक्षियों को निगलता जा रहा है। अब हम सब कर ही क्या सकते हैं? हमलोग तो बड़े साधारण लोग हैं। हमारे बस में थोड़े ही है यह पर्यावरण संरक्षण।
हमारे बाल-बच्चे स्कूल-कालेज में पढ़ ही रहे हैं। उनको काॅपी-किताब, पेन-पेंसिल मिल ही रही है। अब हमलोग इतने मिडिल क्लास तबके के अदने लोग हैं, कि हमारे एक कागज़ बचाने से क्या पूरा का पूरा जंगल प्रायोजित हो जायेगा ! ऐसा तो हैं नहीं।
कल-परसों अखबार में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि एक पूरे पहाड़ का स्खलन हो गया है। उस पर बड़े विविध प्रकार के औषधीय पौधों की प्रजातियां पायी जाती थीं। यह आयुर्वेद का जनक भारत अब विदेशी दवाओं का सर्वाधिक बड़ा खरीदार है। महर्षि च्यवन, चरक संहिता के दिन लद गये। भाई, अब टेबलेट खाइए और यह चक्कर छोड़िए। हम जैसे सीधे-साधारण लोगों के बस में क्या है ! कुछ भी नहीं।
ये अर्यावरण-पर्यावरण, संरक्षण, जैव विविधता, इतने भारी-भरकम काम हमारे जैसे साधारण कंधे पर थोड़े ही सम्भाला जा सकता है ? न तो हमें इसके लिए कोई सम्मान मिलेगा, न कोई पुरस्कार।…तो, जितना समय इन फालतू की बातों पर बितायेंगे, उससे बेहतर चार पैसे कमा लें। ये सब झमेला कौन उठाये ! हमलोग तो बड़े साधारण लोग हैं…रहिए, शांति से।