राजीव थेपड़ा
The biggest deceit is to take your eyes off your time! : गर्मी से जगह-जगह धरती धधक रही है। जंगलों में आग लग रही है, जानवर भी जान बचा कर भाग रहे हैं।…और, अपने आप को ठंडे रखने के लिए लोग मौसम के परिवर्तन से लड़ रहे हैं और यह भी सच है कि सदा से ही लड़ते रहे हैं। किन्तु यहां पर बात कुछ गर्मी की नहीं हो रही, बल्कि एक गर्मी और भी है, जिससे लोग हर मौसम में तपते रहते हैं और वह है अपने-अपने विचारों की गर्मी !! देखा जाये, तो हर आदमी सोचनेवाली प्रवृत्ति का होता है, अलबत्ता सोचने के विषय अलग-अलग होते हैं। बहुत सारे विषय अपने-अपने कामकाज के अनुसार और बहुत सारे विषय अपने अन्य स्वार्थों के अनुसार हुआ करते हैं।
यूं सोचा जाये, तो हर किसी का अपना-अपना कामकाज भी उसके लिए उसका स्वार्थ ही है, जिससे उसके जीवन की समस्त गतिविधियां पूर्ण होती हैं और उसके अलावा कुछ कामकाज ऐसे हैं, जो भौतिक स्तर पर किसी प्रकार के लेन-देन के रूप में दिखाई नहीं देते, बल्कि विचारों के आलोड़न और उनका अतिशय बहाव और उनकी बेतरह गतिशीलता से कहीं समाज वैचारिक विमर्श द्वारा अपनी नानाविध समस्याओं का निदान पाता है, तो कहीं उन्हीं विचारों की उलझनों से तरह-तरह की समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं। यहां पर एक बात कहना समीचीन जान पड़ता है कि वास्तव में अपने समाज की किन्हीं भी समस्याओं का समाधान यदि अपने स्वार्थों को परे रख कर, सभी के हितों की बात सोचते हुए, ईमानदारी पूर्वक संवाद करते हुए ढूंढा जाये, तो उन समस्याओं के समाधान नहीं पाने की कोई वजह नहीं दिखती।
लेकिन, यहीं पर मानव के साथ में एक बहुत बड़ी कठिनाई आ खड़ी होती है कि वह अपने विचारों को सर्वश्रेष्ठ समझता हुआ दूसरों को कमतर समझता है और यहीं पर मनुष्यों के बीच बावेला शुरू होता है। यहां पर जो बावेला पनपता है, वह किसी के श्रेष्ठ होने या किसी के कमजोर होने के कारण नहीं, बल्कि अपने को श्रेष्ठ समझनेवाले लोगों द्वारा दूसरों को हीन समझा जाना ही इस बावेले को जन्म देता है, क्योंकि जैसे ही हम स्वयं को किसी भी तर्क के परे समझते हुए सामनेवाले के साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं कि या तो वह किसी स्तर का नहीं या फिर उसके विचार बिलकुल मिट्टी में रौंदे जाने लायक हैं। तब संवाद की उपस्थिति खत्म हो जाती है और एक प्रकार का शीत युद्ध प्रारम्भ हो जाता है। यह शीत युद्ध सब के दिलों को एक गहरे मनोमालिन्य भर देता है और ऐसे में हम सब एक-दूसरे के प्रति शक का शिकार बन जाते हैं।
तब यह प्रश्न खड़ा होता है कि हम क्या करें? हम कौन-सी राह अपनायें ?…और, थोड़ा सामनेवाला आगे बढ़े, तो थोड़ा हम आगे बढ़ें की तर्ज पर किन्हीं सार्थक संवादों की ओर बढ़ें। किन्तु ऐसा करने के लिए हमें सबसे पहले अपने अहंकार को तिलांजलि देनी होती है, जिसे करने से हमारा दिमाग सदैव हमको मना करता है और हम दुनियादारी के मामलों में सदा दिमाग की मान लेते हैं। दुनियादारी के मामलों में दिल की नहीं मानने की वजह से ही सारा गड़बड़झाला शुरू हुआ है और यह कभी खत्म होने को नहीं आता, क्योंकि तरह-तरह के विषयों के बेहतर जाननेवाले अपने आप को एकमात्र सही समझनेवाले या सर्वश्रेष्ठ समझनेवाले तमाम लोग संवादों के बजाय युद्ध को प्राथमिकता देते हैं !
…तो, यह सारा खेल सिर्फ और सिर्फ अहंकार का है, यह अहंकार किसी कला में स्वयं को श्रेष्ठ मानने का भी हो सकता है। यह अहंकार अपने पंथ को दुनिया में सबसे श्रेष्ठ मानने का भी हो सकता है। यह अहंकार अपने ईश्वर को भी सर्वश्रेष्ठ मानने का हो सकता है। किन्तु समझना सिर्फ यही है कि इस धरती पर ईश्वर के अलावा सर्वश्रेष्ठ कुछ है भी ?? लेकिन, जिस सर्वश्रेष्ठ ईश्वर के बारे में बातें करते हुए हम उसे भी तरह-तरह के पंथों में बिठा कर उसका जिस प्रकार का नगाड़ा बजाये हुए हैं, उस नगाड़े का शोर बहुत ही कटु है !! इस प्रकार इससे सम्बन्धित समस्त विषयों से हमारे संवाद पूरी तरह से विषयों से परे, मानवीयता से विलग और कटुता से परिपूर्ण हैं।…और, यही कटुता बढ़ती-बढ़ती नफरत बनती जाती है और हम एक-दूसरे के प्रति एक के बाद एक और…और…और ज्यादा शक से और नफरत से भरते चले जाते हैं।
…तो, अब इसके बाद का प्रश्न यह है कि इन विषयों पर विचार कौन करेगा? इन विषयों पर क्या कोई कलाकार, लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, कोई ठेलेवाला, कोई छोटा मोटा इंसान, कोई स्त्री, कोई थोड़ा बहुत सोचनेवाला कोई भी व्यक्ति, क्या इनमें से कोई भी इन विषयों पर बातचीत करने का अधिकारी नहीं है?? …और जिस साहित्यकारिता की बात करते हुए हम इन विषयों को राजनीतिक बताते हुए इन विषयों पर साहित्य के क्रम में संवाद करने से जिस प्रकार परहेज करते हैं, क्या हमारी इस बेबात की परहेजी जी वृत्ति से समाधान पैदा होते हैं?? या समस्याएं और उलझती हैं?? क्या हमें इन विषयों का तनिक भी भान है? हम संवाद की बात पर भी लोगों को चुनना शुरू कर देते हैं! इस बात पर यहां पर संवाद होगा ! उस पर वहां पर संवाद होगा ! इस विषय पर यहां पर कुछ नहीं होगा ! उस विषय पर वहां पर कुछ नहीं होगा !
जबकि, हम सभी उन सभी विषयों से आपस में लगातार गुत्थम-गुत्था हैं ! लेकिन, एक-दूसरे की स्वस्थ आलोचना के बजाय एक गंदी और ईर्ष्यामूलक निंदा करते हुए, एक-दूसरे के प्रति विरक्ति ही पैदा करते हैं ! क्या हमारी यह वृत्ति सही है ? इस मंच में यह नहीं होगा ! उस मंच में वह नहीं होगा ! यह बेशक किन्हीं बातों पर, अथवा किन्हीं विषयों पर लागू हो सकता है, लेकिन समाज के बीच की वे बातें, जिनसे हम सब सम्बन्धित हैं हममें से हर एक सम्बन्धित हैं और जिन पर हम सबको विशेषतया पहल करके संवाद करना चाहिए, उसके बारे में हम यह कहते हुए पाये जाते हैं कि यह राजनीति है ? यह किस किस्म की हमारी सोच है? यह मेरी समझ से परे है ! वे सामाजिक समस्याएं, जिनके कारण आपस में कटुता पनप रही है, हमारी गलती हम मानने को तैयार नहीं हैं ! उनकी गलती वे मानने को तैयार नहीं है!
उल्टा मवाद की तरह बहती हुई ऊल-जलूल समस्याओं के विषय में भी यही कहते हैं कि यहां पर ये बातें नहीं होनी चाहिए !…तो, कहां पर ये बातें होनी चाहिए? यह हमें तय कर लेना चाहिए! या यूं कहें कि ये बातें कहीं होनी ही नहीं चाहिए ! बल्कि, अपने मन ही मन में इन्हें और बड़ा और लाइलाज करते हुए अपने आप को एक ऐसा धधकता हुआ गोला बना लेना चाहिए, जिसके सामने उसका कोई भी विपक्षी या प्रतिद्वंद्वी आये, तो एकदम से जल कर खाक हो जाये !! यही चाहते हैं ना शायद हम ? क्या मजाक है यह कि हम अपना आत्ममंथन करना जानते नहीं ! हम अपने भीतर उतरना जानते नहीं !…और, सिर्फ और सिर्फ दूसरों की ओर उंगली उठाते हुए हमें इस बात का तनिक भी भान नहीं होता कि एक अंगुली सामने की ओर है, तो बाकी की चारों अंगुलियां स्वयं की ओर उठी हुई होती हैं!!
हम कब संवाद करना सीखेंगे? हम कब इतने ईमानदार बनेंगे कि एक-दूसरे की सोच के बारे में सदाशयता रखते हुए आपस में सामंजस्य बहाल करने की चेष्टा करेंगे और वैसे पंथ, जो वास्तव में किसी भी प्रकार की अतिशयता का शिकार होते हुए भी अपने आपको बार-बार सर्वश्रेष्ठ मानने की गलती करते हुए, बार-बार मानवीयता को तार करते हैं, सबसे ज्यादा प्रश्न उन्हीं के ऊपर उठते हैं। जिन्हें कई बार हम उठाने से इसलिए भी डरते हैं कि उससे हमारे आपस के सम्बन्ध खराब ना हो जायें ! लेकिन, मैं कहना चाहता हूं कि इन चीजों से डरने के बजाय सामनेवाले को बहुत नम्रतापूर्वक और डट कर यह बताया जाये कि दुनिया पिछले 2000/5000 सालों से बहुत आगे बढ़ चुकी है और 2000/5000 साल पूर्व जो घटित हुआ और जिसके अनुसार जो कुछ भी लिख दिया गया है, उसे अमिट नहीं कहा जा सकता। उसे रद्दो-बदल करने लायक बताये जाने को गलत करार देना भी एक बहुत ही गलत बात है और इस गलत बात की स्वस्थ आलोचना करते हुए लगातार हम सभी को ऐसे विचारों को धार देनी चाहिए, जिससे कि यदि कोई वास्तव में अतिशयता का शिकार है, तो उसके भीतर उस विकार से समाधान पाने का विचार जागृत हो !
अलबत्ता, इस आलेख में किसी को गलत या सही ठहराने की कोई चेष्टा नहीं की जा रही, बल्कि सिर्फ यह बताया जा रहा है कि कुछ है, जो अतिशयता पूर्ण है और अगर वह चंद मुट्ठी भर लोगों द्वारा किया जाता है, तो भी बाकी के लोगों द्वारा ऐसे करनेवालों का बचाव किया जाना ही उस समूचे पंथ के लोगों को शक के दायरे में लाता है और यहीं पर वे बातें हो जाती हैं, जो नहीं होनी चाहिए। इस विषय पर हर पक्ष को सोचना होगा। इस विषय पर हर पक्ष को निरपेक्ष होना होगा और अंत में यही कि इस समाज में रहनेवाला हर व्यक्ति हर प्रकार के संवाद का हकदार है, हर विषय पर बातचीत करने का अधिकारी है और जिन समस्याओं से हम सभी जूझ रहे हैं, उन्हें उपयुक्त मंच पर बातचीत द्वारा, संवाद द्वारा किसी सही मुकाम तक पहुंचाना भी हमारा एक महत्ती कर्तव्य है। इससे हम कभी च्यूत नहीं हो सकते। और हमारे द्वारा ऐसा किया जाना हमारी साहित्यकारिता के प्रति मक्कारी होगी और साथ ही मानवीयता के प्रति गद्दारी भी ! हमें किसी भी भय के परे जाकर सदा ऐसा करना ही चाहिए, क्योंकि यही करना हमारी हमारे समय के प्रति ईमानदारी है और मानवीयता के प्रति सदाशयता भी। हमें सदा ऐसा करना चाहिए, बस ! इससे ज्यादा कुछ नहीं ।।