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जैन धर्म में मृत्यु पर ऐसे विजय प्राप्त करते हैं संत!

जैन धर्म में मृत्यु पर ऐसे विजय प्राप्त करते हैं संत!

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Dharm adhyatma : हिन्दू धर्म की तरह ही जैन धर्म में भी महासमाधि ली जाती है। लेकिन, जैन धर्म की समाधि को लेकर अक्सर लोगों के मन में एक सवाल जरूर रहता है। जैसे जैन धर्म में समाधि के क्या मायने होते हैं। समाधि कैसे ली जाती है और सल्लेखना क्या होता है। साथ ही, इसे खुदकुशी क्यों कहा जाता है। ऐसे में यदि आपके मन में भी ऐसे सवाल रहते हैं, तो आइए विस्तार से बताते हैं।

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क्या होती है सल्लेखना

आपको बता दें कि जैन संतों द्वारा ली जानेवाली समाधि को सल्लेखना कहा जाता है। जैन धर्म के मुताबिक सल्लेखना एक तरह की आत्महत्या है। सल्लेखना के जरिये जैन संत नश्वर जीवन की मुक्ति के बिना ही विशेष कर्मकांड को प्राप्त करते हैं। लेकिन, जैन धर्म में सल्लेखना से जुड़े कुछ नियम भी होते हैं। जैन धर्म में यदि कोई संत को सल्लेखना या समाधि लेते हैं, तो उनको सम्पत्ति संचय, झूठ बोलना, अहिंसा और चोरी जैसे कृत्यों को त्याग करना पड़ता है। क्योंकि, असल में इस धर्म में सल्लेखना की परम्परा बेहद खास मानी जाती है। वहीं, इस सल्लेखना परम्परा का पालन मृत्यु आने पर किया करते हैं।

…तब व्यक्ति खुद से भोजन- जल का त्याग करता है

जब जैन धर्म में किसी को लगता है कि उसकी मृत्यु आनेवाली है…कुछ दिनों में उसका शरीर प्राण को छोड़ सकता है, तब व्यक्ति खुद से भोजन और जल का त्याग करता है। बता दें कि दिगमाबर जैन शास्त्र के मुताबिक इसे ही महासमाधि या सल्लेखना कहा जाता है। बताया जाता है कि सल्लेखना यानी महासमाधि का पालन करना बेहद कठिन होता है। सल्लेखना के दौरान शरीर को अधिक कष्ट भोगना पड़ता है। इस परम्परा का अपना इतिहास भी है। इसके अनुसार, ‘जैन’ शब्द की उत्पत्ति जिससे हुई है, जिसका अर्थ ‘विजेता’ होता है। जैन धर्म में मृत्यु को विजय माना गया है

जैन धर्म के संत जब सल्लेखना लेते हैं, तब मृत्यु का समय विजय प्राप्त करने के समान होता है। इसी वजह से सल्लेखना के दौरान इन नियमों का पालन करना इस धर्म में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना गया है।

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