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ओ कृष्ण ! कौन हो तुम ?

ओ कृष्ण ! कौन हो तुम ?

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राजीव थेपड़ा 

Oh Krishna! Who are you ? :  कितना विचित्र है ना ? छलिया भी है कृष्ण ? गम्भीर भी है कृष्ण ? शांति भी है कृष्ण ! युद्ध का उद्घोष भी है कृष्ण ! एक साधारण-सा ग्वाला और गोप है कृष्ण, तो द्वारिकाधीश भी है कृष्ण !

कृष्ण कुछ और नहीं है, अपितु हर प्रकार की परिस्थितियों के साथ साम्य और सामंजस्य बिठानेवाली एक आत्मा है, जिनका हर कथन, जिनका हर कर्म उनके बाद जीनेवाली हर एक आत्मा के लिए अनुकरण का एक माध्यम है, एक साधन है।

किन्तु, कठिनाई तो यह भी है ना कि कृष्ण को तो क्या, कोई मनुष्य कभी स्वयं को भी किंचित-सा भी नहीं जान पाया, वह भला कृष्ण को क्या तो जान पायेगा !! तो कृष्ण की जो व्याख्याएं हैं, वे कृष्ण की नहीं, बल्कि दरअसल हमारी स्वयं की ही व्याख्याएं हैं ! क्योंकि कृष्ण की यदि कोई व्याख्या ही कर पाता, तो उसका जीवन स्वयं ही कृष्ण न बन जाता ??

कृष्ण के पूरे जीवन को यदि हम देखें, तो हम यह पाते हैं कि कृष्ण से उच्चतर और बहुआयामी व्यक्तित्व इस संसार में कभी पैदा ही नहीं हुआ। कृष्ण एक साथ न जाने कितने ही प्रकार के चरित्र हैं। वह मौन हैं, वह वक्तव्य हैं, वह नायक हैं, वह खलनायक हैं और नायक होते हुए वह खलनायक होने से जरा भी भयभीत नहीं होते। वह मुखर हैं और वह शांत भी हैं। उनमें जो भांति-भांति के रस हैं, वे हम में से हर किसी के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं और समूची मानवता के लिए सुख का एक वातावरण भी निर्मित कर सकते हैं। 

किन्तु, एक ऐसा चरित्र, जिसे हमने केवल अपने उपनिषदों द्वारा किंचित मात्र भर सुना है या पढ़ा है और आज की हमारी दुनिया में उन्हें पढ़नेवाले, उन्हें श्रवण करनेवाले लोग क्रमश: इतने कम होते चले जा रहे हैं कि हमने कृष्ण को एक तरह से अपने आप से खो-सा दिया है। कृष्ण हमारा भी चरित्र हो सकते थे। यदि हमने उन्हें बांचा होता! यदि हमने सही मायनों में उन्हें श्रवण किया होता! एक अद्भुत चरित्र के अनुकरण को हमने केवल और केवल इसीलिए गंवा दिया, क्योंकि हम अपनी भारतीयता से ही विमुख हो गये ! 

भारत नाम के उपमहाद्वीप में इस उपमहाद्वीप के आध्यात्मिक संसार में जितने भी प्रकार के इस प्रकार के मनुष्य अथवा अवतार अवतरित हुए, वह भारत ही नहीं, अपितु इस समूची मानवता के समस्त रूपों को लाभान्वित करने के लिए पर्याप्त होते! हमारे जीवन को सुखमय बनाने के लिए पर्याप्त होते! लेकिन, हमने अपने अहंकार युक्त नास्तिकता और कम्युनिस्टता के मारे और अपने लिबरल होने के सो कॉल्ड महानता के चलते उन्हें पूरी तरह से अपने जीवन से लगभग च्यूत ही कर दिया!

कृष्ण, जो हममें से प्रत्येक के अंतस में थोड़े-थोड़े से अंश मात्र के रूप में भी बचा हुआ होता, तो यह देश समूचे विश्व को प्रेम का संदेश दे रहा होता और इस देश की महानता के समक्ष हर कोई नतमस्तक होता! लेकिन सम्भवत: नियति किसके लिए क्या तय करती है और कौन-सा व्यक्ति, समाज या देश इस नियति के लिखंत में किस तरह का रोल अदा करता है! यह भला कौन जान पाया है?

किसी भी देश या सभ्यता का अपने ही अतीत से कट जाना, अपनी ही जड़ों से अलग हो जाना कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता है, यह इस देश के पिछले 600/700 वर्षों को देख कर सहज ही समझा जा सकता है। किन्तु, कहते हैं ना, जब जागो तब सवेरा ! …तो, अभी भी समय पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है! यदि अब भी हम अपनी शिक्षा-दीक्षा को अपने अतीत से जोड़ सकें और अपने उन गुणों का पुन: परिमार्जन कर सकें, जिनके होने भर से एक मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य बनता है और जिससे एक मनुष्यता जन्म लेती है और तब जिस पर समूची मनुष्यता गर्व करती है! यह गर्व भले ही किसी को दिखाई ना देता हो!  लेकिन, एक सच्ची मनुष्यता के तले मनुष्य का जीवन जिस प्रकार का गरिमामय हो सकता है, वैसे ही गरिमामय जीवन को हम समस्त मनुष्य डिजर्व करते       हैं!  काश! हम जो डिजर्व करते हैं, उसे पाने के रत्ती भर भी प्रयास हम कर भी पाते !!

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