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FESTIVAL OF COLOURS : इतिहास के आईने में भी देखें होली की एक झलक, मस्ती के आलम में ज्ञान की बोली…

FESTIVAL OF COLOURS : इतिहास के आईने में भी देखें होली की एक झलक, मस्ती के आलम में ज्ञान की बोली…

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Bharat (भारत) जो आज है, वही कल नहीं था। जो आज है, वही कल नहीं रहेगा। बदलाव की बयार सांसों के लिए जरूरी है। समझ के लिए जरूर है और जिंदगी के प्रवाह को आगे बढ़ाने के लिए भी जरूरी है, मगर बदलाव कभी शाश्वत मूल्यों का विनाश नहीं कर सकता। भारत शाश्वत मूल्यों का देश है। विविधताओं की व्यापकता का जीवंत उदाहरण है पूरी दुनिया के लिए। एकनिष्ठ या एकमुखी सोच भारत की संस्कृति नहीं है। संस्कृति अपने आप में बहुवचन है और यह बहुलता की सच्ची प्रतिनिधि है। Oneness is not the character of India. भारत की जनता भेड़ों की भीड़ नहीं है, जिसे कोई गड़ेरिया हांक कर लंबे समय तक बहुत लंबी दूरी तय कर सकता है।

भारतीयता की प्राणशक्ति

भारत के हर पर्व-त्योहार में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की दीवारें टूट जाती हैं और सब एकमेव हो जाते हैं। यही भारतीयता की प्राणशक्ति है, जो किसी एकरंगी संस्कृति को चुनौती देती है। ले लीजिए उदाहरण होली का। हम एक ही रंग से क्यों नहीं होली खेलते। अलग-अलग जगहों पर होली के अलग-अलग नाम। होली खेलने के पीछे अपनी-अपनी अलग-अलग भावना होने के साथ आपस में सामंजस्य और समन्वय की अनुभूति भी है। अवध में राम की होली और बिरज में किशन की होली। होली फगुआ भी है, होरी भी है। होली दोल भी है, धुलेंडी और छारंडी भी है। अलग-अलग क्षेत्रों में और भी कई नाम और होली खेलने की अलग-अलग शैली भी होगी, पर सब एक तार से जुड़े हैं और इस तार का नाम है विविधता और यही है भारत भूमि की सार्थकता।

लोक संगीत की गायन शैली

संगीतशास्त्र के लोक पक्ष में तो होली या फाग एक गायन शैली भी है। ऐसी गायन शैली, जो दिल को झुमा दे। रंगोत्सव वास्तव में रंगों का मेल है और रंगों का मेल वास्तव में दिलों का मेल है। Holi is a combination of colours and combination of colours is combination of hearts.

नए कदमों के साथ कदमताल

याद रखिए, भारत भूमि कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। समय-समय पर हुए तमाम भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद। अपनी शाश्वत मान्यताओं के साथ विज्ञान और तकनीक के बढ़ते कदमों को अपनाएगी। अपनी दृष्टि के साथ, अपने चिंतन के साथ। अभी की और आनेवाली नयी पीढ़ियां दुनिया की नयी आवाज बनेंगी, मगर भारत भूमि के दामन को थाम कर। कहना न होगा कि भारत की एक अरब 35 करोड़ जनता ही वास्तव में ‘भारत माता’ है। इसके जीवन के विभिन्न प्रवाहों में स्वतत: ‘वंदे मातरम’ गूंजता है। किसी भी तरह की कट्टरता भारत की उज्ज्वल प्राणशक्ति पर आघात है। इससे बचे बिना हम भारत और इसके पर्व-त्योहारों की भावना को नहीं बचा सकते हैं।

एक प्राचीन पर्व है होली

अब थोड़ा झांकते हैं इतिहास के आईने में। होली हमारे देश का अत्यंत प्राचीन पर्व है, जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव की संज्ञा भी दी जाती है।
हमारे देश के दिग्गज इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था। प्रारंभ में यह पर्व अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं- जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित 300 bc यानी आज के 2500 साल पहले के एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। कालिदास इनमें अव्वल हैं। पालि, प्राकृत, अवहट्ठ भाषा के साहित्य में भी होली का जिक्र है। हिंदी साहित्य में भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल तक के बड़े कवियों ने होली पर कविता लिखी है। अमीर खुसरो,विद्यापति और सूरदास से लेकर आधुनिक काल में निराला और केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं लोगों की जुबान पर आज भी हैं। उर्दू की गजलों और शायरी में भी होली की धड़कन महसूस की जा सकती है।

इतिहास के प्रवाह में होली

सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का अंदाज बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

मंदिरों की दीवारों पर होली के चित्र

प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर रंगोत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16 वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दंपती को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। इसी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डालते दिखाया गया है। 17वीं शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा प्रताप को होली के अवसर पर अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगनाएं नृत्य कर रही हैं और इन सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बेशक हर युग में होली आनंद और भावनात्मक मेल की निशानी रही है।

समाचार सम्राट डॉट कॉम की ओर से सबको होली की बधाई और शुभकामनाएं। सामाजिक सौहार्द और सद्भाव बनाए रखने का अनुरोध।

डॉ. रामकिशोर सिंह, संपादक

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