राजीव थेपड़ा
एक वो दिन थे, जब हम अपने शहर में अपने मित्रों के साथ न जाने कितने ही बागानों में जाकर वहां भांति-भांति के फलों के वृक्षों पर चढ़ा करते थे और उनसे तरह-तरह के फल तोड़ कर खाते थे। न जाने कितने ही मैदान थे, जिनमें जाकर हम खेला करते थे और हमारी आंखों के सामने उन मैदानों का कोई अंत नहीं दिखाई देता था ! जहां तक हमारी दृष्टि जाती थी, वहां तक मैदान ही मैदान थे !
…और, अकेले हमारे मोहल्ले में न जाने कितने ही कुएं और तालाब थे। भले ही पार्क नहीं थे, लेकिन पानी के इतने सारे सोते थे, जिससे ना तो हमें कभी पानी की कमी हुआ करती थी और उन तालाबों के आसपास टहलते हुए, उन तालाबों में मछलियां मारते हुए लोगों की भी कोई कमी नहीं होती थी और उन तालाबों के आसपास तरह-तरह के तीज-त्योहार में जुटे हुए लोग दिखाई दे जाते थे। इसी प्रकार किसी बच्चे के जन्म पर उसके जलवे में यही कुएं विभिन्न प्रथाओं के धार्मिक आचरण के सहभागी साक्षी बनते थे।
इस प्रकार ये समस्त तालाब एक पूरे समाज के समागम के स्थान भी हुआ करते थे ।
अब कुछ भी नहीं है ! उन सभी तालाबों के स्थान पर बिल्डिंगें बन गयीं हैं ! जिनमें लोग तो बहुत सारे रहते हैं ! लेकिन, अब उस धरती के नीचे से पानी नहीं निकलता ! निकलता भी है, तो 300 फीट नीचे जाकर !
शहर के निकटतम हिस्सों में पहाड़ थे। लेकिन, वे सभी हमारे घर में टाइल्स बन कर हमारे फर्श पर चढ़ चुके हैं ! और नदियां भी हुआ करती थीं ! अब जिन्हें हमारे बच्चे देखते हैं, तो उन्हें पूछना पड़ता है कि यह क्या है ? यह बड़ा सारा नाला शहर के बीचो-बीच कैसा बह रहा है ? हमें उन्हें बताने में भी लज्जा आती है कि यह नदी है ! या कि यह कभी नदी हुआ करती थी ! इन नदियों के किनारे भी लोग आते थे…टहलते थे…बच्चे खेलते थे। खुले स्थानों की कोई कमी नहीं थी। ना उद्यानों/वनों की कमी थी। इसी प्रकार शहर के बीचो-बीच खेत भी हुआ करते थे। वे खेत कट कटा कर हम सभी के सभी तरह-तरह की बिल्डिंगों में, अपार्टमेंटों में, फ्लैट्स में समा गये ! और उनमें लगी लाइटों की चकाचौंध में खो गये ! अब वहां रहते हुए लोग एक-दूसरे को नहीं पहचानते ! जहां कभी खेतों के रूप में पटी धरती पर लोग काम करते हुए एक पूरा कुनबा बनाये हुए थे !
शहर किस प्रकार बदल जाते हैं ? एक्चुअली शहर हमारी आवश्यकताओं के अनुसार बदलते जाते हैं ! शहरों को रोना नहीं आता ! अगर आता, तो वे दहाड़ मार कर रोते और उन्हें रोता देख कर हम लज्जित होते !! हम हंसते हुए शहरों को उजाड़ते हैं और फिर उन उजड़े हुए शहरों पर रोते हैं ! यह एक विचित्र तर्क है हमारे जीवन का ! जहां पर हम प्रत्येक चीज को पहले उजाड़ देते हैं ! नदी को, पहाड़ को, कुएं को, तालाब को, पार्क को, हर खुली जगह को, वृक्षों को, सभी को !! उसके बाद पिकनिक के लिए जंगलों में जाते हैं, वनों में जाते हैं, पहाड़ों पर जाते हैं ! समुंदरों के पास जाते हैं ! नदियों के पास जाते हैं ! जो शहर से बहुत दूर होते हैं !
इस प्रकार अपने शहर के बीचो-बीच के समस्त रमणीक स्थलों को समाप्त करके हम पुनः से उन्हीं चीजों को दूरस्थ क्षेत्रों में जाकर ढूंढते हैं और वहां आनन्द बटोर कर वापस आते हैं और फिर अपने शहर में आकर वापस खीझते हैं !! यही हमारी नियति है और फिर भी हमें समझ नहीं आता कि हमने क्या किया है ! हमने क्यों किया है ? और हमारी भूख क्यों नहीं मिटती ? हम सब मिल कर नदी खा जाते हैं ! तालाब खा जाते हैं ! कुएं खा जाते हैं ! पेड़ खा जाते हैं ! पौधे खा जाते हैं ! खुले मैदान खा जाते हैं ! खेत खा जाते हैं ! लेकिन, फिर भी हमारी भूख नहीं मिटती !
…तो, शहर तो वही होते हैं, किन्तु समय के साथ इतने बदल जाते हैं, जिन्हें हम पहचान तक नहीं पाते और पहचानना भी क्यों है ? हमें तो अपने घर से अपने कार्यस्थल, चाहे वह ऑफिस हो सकता है, चाहे वह व्यापारिक स्थल हो सकता है ! वहीं तक तो जाना है ! फिर हमें शहर को पहचान कर क्या करना है ? उनमें रहनेवाले लोगों के साथ हमारे क्या सरोकार है ? किसी जमाने में दूर-दराज तक के लोग एक-दूसरे को पहचानते थे ! आज अपने मोहल्ले तो क्या, अपनी बिल्डिंग के लोग भी हमको नहीं पहचानते !…और, हम भी उनको नहीं पहचानते !
…तो जब किसी से कोई सरोकार ही नहीं है, सम्बन्ध ही नहीं है, तो फिर पहचान क्या है? और भला किस चीज को पहचानना चाहते हैं हम ? …और, क्यों पहचानना चाहते हैं ? मेरे सम्मुख यह बहुत विकट प्रश्न है ! मैं इन प्रश्नों पर अचंभित रहता हूं ! उनके उत्तर मुझे ना स्वयं से मिलते हैं, ना किसी और से मिलते हैं ! हमारा शहर खो गया है ! ना ना ना ! एक्चुअली शहर नहीं, हम खुद खो गये हैं !!
शहर तो हमारा ही है !! हां, यह अवश्य है कि समय के साथ बदल गया है और अब इसमें इतने लोग समा चुके हैं कि हमारी पहचान के लोग नहीं बचे !! इतनी बिल्डिंगें और सड़कें बन चुकी हैं कि हमारी पहचान के मोहल्ले गायब हो चुके हैं !! इतने संस्थान और न जाने क्या-क्या कुछ बन चुके हैं कि यहां के पेड़-पौधे-पार्क, नदी-पहाड़- तालाब-कुएं ; सब के सब लुप्त हो चुके हैं !! शहर तो हमारा ही है, लेकिन अब पहचान में नहीं आता !!
…और, यह बिलकुल ऐसा ही है, जैसे हम किसी शहर से बाहर गये और बरसों बाद वापस लौटे, तो जिन बच्चों को हमने जिस उम्र में देखा था, हमारे मन में उनकी वही छवि बनी रहती है। किन्तु जब हम वापस लौटते हैं, तो वे बड़े हो चुके होते हैं और हम उन्हें पहचान ही नहीं पाते !!
लेकिन, शहरों के साथ बिलकुल उल्टा होता है ! शहर हमारे देखते-देखते बदलते चले जाते हैं और बरसों बरस में इतने बदल जाते हैं कि उनकी तो अपनी वास्तविक पहचान ही समाप्त हो जाती है ! हमारी स्वयं तक की पहचान ऐसी हो जाती है कि हम आईना देखें, तो खुद को ना पहचानें !!
बरसों से आईना ना देखें और अचानक किसी दिन आईना देखें, तो क्या खुद का चेहरा पहचान सकेंगे हम ? बस, वैसा ही शहर के साथ है !! कसम से…! यह शहर तो हमारा ही है ! लेकिन, अब हम इसे कभी पहचान नहीं पायेंगे !!



