राजीव थेपड़ा
चोट लगती है तब, जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, लेकिन अपनी बदलतीं भूमिकाओं को समझ नहीं पाते !
चोट लगती है तब, जब बच्चे सिर्फ और सिर्फ अपने कार्यों में, अपने उल्लास में मगन रहते हैं और उन्हें बाकी की किन्हीं चीजों से कोई मतलब ही नहीं होता !
चोट लगती है तब, जब बच्चों को यह तक नहीं पता होता कि उनके पापा उनके लिए कितना खटते हैं और किस प्रकार उनकी आवश्यकताएं पूरी करते हैं और इसके लिए उन्हें जीवन से किस-किस प्रकार से लड़ना नहीं पड़ता और कैसी-कैसी जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती !
चोट लगती है तब, जब बच्चे अपनी मां को अनवरत श्रम करते हुए देख कर भी इस बात का एहसास अपने मन में नहीं बटोरते कि उन्हें अपनी मां की कुछ मदद कर देनी चाहिए या उनकी बूढ़ी दादी, जिस पर ऊपरी तौर पर बहुत प्यार दिखाते हैं ये बच्चे, उनकी मदद को भी तत्पर नहीं होते और तब इस ऊपरी प्यार का भ्रम पूरी तरह से टूट जाता है !
चोट लगती है तब, जब बच्चे यह तक नहीं जानते कि उनके मां-बाप कुल मिला कर उनके लिए किस प्रकार अपना जीवन होम कर रहे हैं। अपनी खुशियां त्याग कर अपने बच्चों के लिए जीते हुए वे किस प्रकार उनके लिए व्याकुल हैं !
…और, तब तो और भी ज्यादा चोट लगती है, जब बच्चे यह कहते हैं कि तुमने अपने आनन्द के चलते हमें जन्म दिया है, सो यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम हमें पालो !!
यहां तक तो ठीक है, लेकिन ये बच्चे यह भूल जाते हैं कि ऐसा कहते हुए उन्हें भी अपने बड़े होने के एहसास को समझते हुए उनकी स्वयं की भूमिकाओं में भी कुछ बदलाव की आवश्यकता है, यह भी उन्हें समझना चाहिए। हालांकि, ये कभी नहीं समझते !!
चोट लगती है तब, जब बच्चे अपनी-अपनी आवश्यकताओं में डूबे और अपने-अपने गैजेट्स में खोये या अपने-अपने दोस्तों के साथ चैट करते हुए यह तक नहीं जानते कि उन्हें उनके इन गैजेट्स तक, उनकी पढ़ाई तक और उनके जीवन-यापन के तमाम खर्च किस प्रकार वहन किये जा रहे हैं!?
चोट बात-बात पर लगती है, क्योंकि आजकल के बच्चे यह तनिक भी नहीं जानते कि उन्हें अपने कैरियर के सिवा बाकी सभी चीजों को कब, कैसे, कितना और क्या करना है !
अपने बड़े होते जाने का दम्भ अवश्य भरते हैं बच्चे ! किन्तु इसके पीछे कोई कंक्रीट बेस नहीं होता ! वे तो बस दम्भ भरना जानते हैं और जब उनके ऊपर आती है, तब बेशक वे कहते हैं कि आपने उन्हें पैदा ही क्यों किया ??
चोट लगने के और भी हजारों कारण हो सकते हैं, जैसे बहुत सारे बेटे/बेटियां सख्त से सख्त जरूरत पड़ने पर भी कभी घर में अपनी मां की मदद या व्यापार में अपने पिता की मदद को कभी भी उद्यत नहीं होते। हालांकि, वे बराबर जताते हैं कि उन्हें अपने मां-बाप से बहुत प्यार है !!
कभी-कभी यह लगता है कि मां-बाप के प्रति उनका यह प्यार सिर्फ और सिर्फ उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति किये जाने भर तक है ! उनके अपने द्वारा मां-बाप के लिए कुछ किये जाने से सम्बन्धित बिल्कुल नहीं।
इस प्रकार का जीवन जीते हुए हालांकि बहुत सारे मां-बापों को यह लगता होगा कि वे क्यों जी रहे हैं ? जिनके लिए जी रहे हैं, जब उनके बच्चे ही उनके अपने नहीं हैं ! वे तो बस अपनी मनमानी करने और अपनी जरूरतों का चिट्ठा उन्हें सौंपने के लिए पैदा हुए हैं !!
ऐसे में इन चोट का किया भी क्या जा सकता है ? ऐसे में रोज-रोज ऐसी चोट खानेवाले तमाम मां-बाप एक-दूसरे की चोटों पर मरहम लगाते हुए, एक-दूसरे को ढांढस बांधते हुए जी रहे हैं इस तरह ; जैसे जीवन में चोटों का कोई अस्तित्व ही ना हो !! क्योंकि, एक पल के लिए भी यदि उन्होंने इन चोटों को चोट समझ लिया, तो उस पल ही उनका जीवन जीना दूभर हो जायेगा !! आशा का एक क्षीण-सा दीप, जो उनके मन में सदा जलता रहता है, वह उसी पल बुझ जायेगा !!
ऐसी चोट खाये हुए समस्त मां-बापों की भावनाओं को उकेरते हुए उनके साथ खड़ा उनका अपना ग़ाफ़िल…!!



