राजीव थेपड़ा
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले अधिकांश अमेरिकी अपनी मृत्यु तक कार्य किया करते थे। 1940 तक 65 वर्ष और उससे अधिक आयु के पुरुषों की श्रमिक वर्ग में भागीदारी 50% से भी अधिक थी। 1940 के पश्चात सेवानिवृत्ति की अवधारणा का सूत्रपात हुआ। जब ईडा में फ़ुलर ने अपना पहला सामाजिक सुरक्षा चेक कैश कराया। इसका कुल मूल्य लगभग साढे बाइस डॉलर था और उसके पश्चात अमेरिकियों के जीवन में बढ़ती हुई महंगाई और मुद्रास्फीति के समतुल्य सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना का आकार बढ़ता चला गया, जो विभिन्न व्यक्तियों की विभिन्न आय वर्ग के अनुसार समायोजित हुआ करता था।
यूं देखा जाये, तो सेवानिवृत्ति का विचार अपने आप में भयावह प्रतीत होता है ! सुबह से शाम तक किसी फैक्ट्री में, किसी कार्यालय में अथवा किसी भी अन्य स्थान पर कार्य करनेवाला व्यक्ति सेवानिवृत्ति के पश्चात अपने जीवन को बहुत तर्कसंगत ढंग से अथवा बहुत रचनात्मक ढंग से नहीं देख पाता। भय की सबसे बड़ी बात यह है कि सेवानिवृत्ति के पश्चात उसकी आय का साधन हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगा। इसलिए सेवानिवृत्ति तक हर व्यक्ति कम-से-कम इतना धन इकट्ठा कर लेना चाहता है कि सेवानिवृत्ति के पश्चात उसका शेष जीवन अच्छे से चलाया जाता रहे और यह भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग आय वर्ग के अनुसार हुआ करता है।
यद्यपि, भारत के संदर्भ में सेवानिवृत्ति को देखें, तो यहां इसे बिलकुल अलग और बेहद रचनात्मक तरीके से देखा गया है। भारत की परम्परागत अवधारणा जीवन को चार भागों में बांटकर देखने की रही है। इसमें प्रथम बाल्यावस्था, द्वितीय किशोरावस्था, तृतीय युवावस्था एवं चतुर्थ वृद्धावस्था । प्राय: वृद्धावस्था को वानप्रस्थ नाम दिया गया है। हिन्दू धर्म के चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में तीसरा स्थान या तीसरा चरण वानप्रस्थ कहलाता है। इसका शाब्दिक अर्थ ही है वन की ओर प्रस्थान। यह वह अवस्था है, जब व्यक्ति अपनी गृहस्थी के समस्त दायित्व अपनी संतानों को सौंप देता है। अपने सांसारिक मोह कम करता है और आध्यात्मिक मुक्ति यानी मोक्ष की ओर बढ़ने के लिए धीरे-धीरे समाज और भौतिक सुख-सुविधाओं से अलगाव अपनाता है। वस्तुतः यह सन्यास आश्रम में प्रवेश करने से पहले एक संक्रमण-कालीन चरण है, जहां व्यक्ति आध्यात्मिक साधना और एकांतिक जीवन की ओर उन्मुख होता है।
सामान्यतः वानप्रस्थ गृहस्थ आश्रम के पश्चात आता है, जब व्यक्ति की आयु 50 वर्ष के आसपास होती है। लेकिन यह विचार उस काल का है, जब जीवन को 25-25 वर्षों के चार भागों में विभक्त किया गया था। आज के अनुसार यह आयु थोड़ी अधिक भी हो सकती है। एक वानप्रस्थी अपने परिवार और सांसारिक जिम्मेवारियों को अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देता है और अपनी भौतिक इच्छाओं को त्याग कर समाज और सुविधाओं से दूर प्रकृति के साथ एकांत में रहने लगता है। इस अवस्था का उद्देश्य सन्यास आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व मन को आध्यात्मिक रूप से तैयार करना है। यह बहुधा पति-पत्नी दोनों द्वारा मिल कर अपनायी जाती है, जहां वे अपनी संतानों से अलग रह कर जीवन बिताते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि वानप्रस्थ एक ऐसा जीवन है, जो भौतिकता से दूर होकर आध्यात्मिक चिन्तन-साधना और प्रकृति के साथ एकरूप होकर एकाग्रचित जीवन जीने पर केन्द्रित होता है, ताकि व्यक्ति संन्यास के लिए स्वयं को पूरी तरह से तैयार कर सके।
इस प्रकार हम पाते हैं कि वृद्धावस्था भारत में किसी भी तरह की भयावह अवधारणा नहीं, अपितु एक वह रचनात्मक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपने द्वारा दिये गये जीवन के अनुभवों के अनुसार अपना शेष जीवन अपने स्वयं के मोक्ष के लिए अथवा समाज के लिए भांति-भांति के रचनात्मक कार्यों में व्यतीत कर सकता है और यह उसकी रुचि के अनुसार होता है। विभिन्न व्यक्ति, विभिन्न विषयों में पारंगत होते हैं और उन्हें अपनी उन अभिरुचियों और पारंगतता के अनुसार समाज के होनहारों, किशोरों, बालकों और युवाओं के साथ मिल कर कुछ ऐसे कार्य करने चाहिए, जिसमें उन सभी लोगों को उस वृद्ध, किन्तु विभिन्न जीवन-अनुभवों से समृद्ध व्यक्ति के अनुपम अनुभवों का व्यापक लाभ प्राप्त हो सके।
किन्तु आमतौर पर हमारा जीवन इस प्रकार गुजरता है कि वृद्धावस्था में हम अपने ही घर में या समाज में जीते हुए अपने से प्रत्येक छोटों ; यानी अनुभवहीनों और वर्तमान परिस्थितियों की लगातार आलोचना करते हुए एक विषमय वातावरण तैयार करने लगते हैं और ऐसे में हमारे आसपास के वे लोग भी हमसे छिटक जाते हैं, जो वास्तव में हमारे स्वयं के सगे सम्बन्धी या हमारे पास पड़ोस के लोग भी होते हैं। समाज का कटु सत्य यह भी है कि जब तक परिवार का कोई भी व्यक्ति कमानेवाला होता है, तब तक परिवार में उसकी महत्ता दूसरे ही प्रकार की होती है। लेकिन, जब वह वृद्धावस्था में पहुंच कर अपने काम-धंधों से निवृत्त हो जाता है, तब वह अपने परिवार के लिए धन कमाने की इकाई के रूप में अनुपयोगी हो जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह सभी तरीकों से परिवार के लिए अनुपयोगी हो और इसके लिए परिवार और उस व्यक्ति-विशेष दोनों को आपस में तारतम्य बनाने की कला आनी चाहिए।
प्राय: अधिकतर लोग यह समझते हैं कि वृद्धावस्था का अर्थ प्रत्येक काम छोड़ देना या अपनी समुचित जिम्मेवारी से ही निवृत्त हो जाना है। किन्तु, संसार में ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप जब तक जीते हैं, आपकी आखिरी सांस तक के चलने तक आपको जहां तक हो सके, रचनात्मक बने रहना होता है। क्योंकि, मनुष्य का जीवन तरह-तरह के सृजन कार्यों में लग कर ही प्रसन्नता पूर्वक जिया जा सकता है। जैसा कि कहा जाता है। खाली दिमाग शैतान का घर ! यह बिल्कुल सच है कि जब आप बिलकुल खाली रहते हैं, तो आपका मन जिस प्रकार की उड़ान भरता है, उसमें वास्तविकता कम, फंतासी ज्यादा होती है ! किन्तु, वास्तविक जीवन में फंतासी का कोई अर्थ नहीं होता है ! भले ही आप अपनी कल्पना में कितने ही घोड़े क्यों नहीं दौड़ा लें, लेकिन आपके वास्तविक जीवन में यदि कछुआ भी नहीं है, तो आप फंतासी और वास्तविकता के बीच में पिस कर रह जायेंगे और कभी अपना वास्तविक जीवन नहीं जी पायेंगे!
हमेशा अधिकतर लोगों के साथ में ऐसा ही होता है कि वे अपनी-अपनी दिनचर्या के कार्यों से इतना ऊबे हुए होते हैं कि अपने मन में अपने लिए, अपने जीवन के लिए एक विशेष प्रकार की फैंटसी भी गढ़ते रहते हैं और यह फैंटसी और वास्तविकता का घर्षण निरन्तर उनके मनो-मस्तिष्क में चलता रहता है और इसी से सारा दु:ख है। फंतासी का मन में होना बुरी बात नहीं है। लेकिन, उसका वास्तविक जीवन पर हावी हो जाना, यह सबसे बुरी बात है। आप अपने कामों को करते हुए भी आनन्दित रह सकते हैं। आपका हर कार्य आपको आनन्द से परिपूर्ण कर सकता है। यदि आप उस कार्य में डूब जायें। यह भी सच है कि हर किसी को उसके मन के अनुकूल कार्य नहीं मिलता। संसार में ऐसे करोड़ों लोग भरे पड़े हैं, जो किसी-ना-किसी तरह की रचनात्मकता रखते हैं, लेकिन उन्हें वे अवसर नहीं मिलते और उन्हें किसी और ही तरह का जीवन जीना पड़ता है। लेकिन, यदि वे अपने उन रचनात्मक आवेगों के कारण अपने द्वारा दिये जा रहे वास्तविक जीवन को स्वीकार न कर पायें, तो इससे बड़ा दुख भला और क्या होगा? और इसी दुख से हम में से अधिकांश लोग भरे हुए रहते हैं, जिसका कि कोई कारण ही नहीं है।
बात हो रही थी वृद्धावस्था की, जिसे हमारे यहां वानप्रस्थ की संज्ञा भी दी गयी है। इस वानप्रस्थ का एक रचनात्मक मर्म है और यदि हम अपनी उस परम्परा को याद करें और उसके द्वारा बताये गये उन सूत्रों का अपने जीवन में अनुसरण करें, तो हमारी सेवानिवृत्ति के बाद का जिया जा रहा जीवन उतना ही आनन्दपूर्ण और रचनात्मक आवेग से परिपूर्ण हो सकता है, जितने कि हम कल्पना किया करते थे ! आवश्यक नहीं कि हमारी हर कल्पना सच हो ! लेकिन, यह सच है कि हम अपनी कल्पनाओं के बहुत सारे अंशों को अपने वास्तविक जीवन में उतार सकते हैं और जितना ज्यादा जितना अधिक हम उसे अपने वास्तविक जीवन में उतारते जायेंगे, उतना ही अधिक न केवल हमारे स्वयं का जीवन समृद्ध होता जायेगा, बल्कि हमारी उस व्यक्तिगत समृद्धता से हमारे आसपास का समूचा वातावरण भी समृद्ध होगा। हमारे बच्चे, हमारे युवा, हमारे परिवार के सभी सदस्य, हमारे आस-पड़ोस के सभी लोग ! यहां तक कि हम जहां उठते-बैठते हैं, आते-जाते हैं, वहां के सभी लोग इससे समृद्ध होंगे…लाभान्वित होंगे। हमें केवल इतना भर सोचना है कि हमें क्या करना है और कैसे करना है।



