जिंदगी की पीर
वो घर — जो कभी हम सबका हुआ करता था,
अब बस मायका हो गया है।
जहाँ हर कोने में हँसी की गूंज थी,
अब बस खामोशी का बसेरा है।
पिताजी की बनाई दीवारें अब भी खड़ी हैं,
पर उनमें उनकी हँसी की गूँज कहीं खो गई है।
तुलसी की ठंडी पत्तियाँ अब अकेली मुस्कुराती हैं,
माँ के दीप में बीते समय की लौ सुलगती है।
चौखट वही है, पर कदमों की आहट बदल गई है
खिड़कियों से आती धूप भी थकी परछाई जैसी है
पुराने पन्नों में तस्वीरें हँसती हैं,
पर आँखों में बस अनकहा विरह बसा है।
हर कोना यादों की गूँज सुनाता है,
हर दरवाज़ा बीते समय की कहानी कहता है।
हरसिंगार का पेड़ अब भी झूमता है,
पर उसकी छाँव में खेलते कदम
अब यादों की धूल में दब गए हैं।
रसोई की महक अब भी वही है,
पर थाली अब माँ अकेले सजाती हैं —
क्योंकि, साथ बैठने वाले कम हो गए हैं।
बरामदे की चारपाई पर
अब अख़बार नहीं, बस चुप्पी रखी होती है।
घड़ी चलती है, पर वक़्त ठहरा हुआ लगता है।
हर कोना, हर चीज़ —
पिताजी की उँगलियों के निशान से भरी है।
जब हम लौटते हैं,
माँ मुस्कुरा देती हैं — जैसे कुछ नहीं बदला,
पर घर की दीवारें कहती हैं —
“बहुत कुछ चला गया है…”
घर — जो कभी हम सबका था,
अब ठिकाना है लौटने का,
एक पल ठहरने का,
और फिर बह जाने का
बीते हुए कल की नदी में।
यादें रहती हैं,
दीवारों में, खिड़कियों में,
और हमारे अंदर —
जहाँ समय कभी थमता नहीं।
धरती की पुकार: “हरित पुनर्जन्म”
मैं धरती हूँ… तुम्हारी जननी।
अब भी घूम रही हूँ,
पर मेरी धड़कनें थकी-थकी सी हैं,
साँसें उखड़ने लगी हैं।
पेड़ों ने अब बोलना छोड़ दिया,
हवाओं ने कराहना सीख लिया है।
नदियाँ बहती तो हैं,
पर उनके स्वर में अब संगीत नहीं —
बस एक करुण रूदन है।
पहाड़ अब भी खड़े हैं,
पर उनकी चोटियों से बर्फ पिघल चुकी है।
आकाश अब नीला नहीं रहा,
हवा में मिट्टी की वह पवित्र गंध नहीं रही।
कभी जो वृक्ष छाँव देते थे —
अब स्मृतियों में उगते हैं।
पक्षियों के गीत इतिहास बन चुके हैं,
और वर्षा —
मानो ईश्वर की कोई चेतावनी हो गई है।
युग बदल रहा है…
पर क्या चेतना बदलेगी?
क्या फिर से अंकुर फूटेंगे उस विश्वास के,
जो हरियाली के संग मर गया था?
यदि तुम समझो…
यदि तुम फिर से प्रेम करो —
तो मैं अपने आँचल में हरियाली लौटाऊँगी,
नदियाँ फिर गीत गाएँगी,
हवाएँ मधुर सुर सुनाएँगी,
और आकाश फिर नीला हो जाएगा।
अब समय है —
मिट्टी से संवाद का,
पेड़ों से क्षमा का,
और नदियों से नया संकल्प लेने का।
युग बदल रहा है…
और मैं —
धरती —
इंतज़ार में हूँ,
अपने “हरित पुनर्जन्म ” की।
परिचय
श्रीमती शीला पात्रो
जन्मदिन-14अप्रैल 1987
जन्मस्थान-गोविंदपुर(धनबाद)झारखंड।
हिंदी एवं बांग्ला साहित्य में गहरी अभिरुचि,फुरसत में बांग्ला गीत-संगीत सुनना एवं फूलों के विषय में जानना तथा उनकी बागवानी पसंद।
यूँ तो स्वान्त:सुखाय लेखन किशोरावस्था से ही प्रारंभ हो गया था पर पिछले पाँच वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मेरी रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं।
संप्रति-उत्क्रमित मध्य विद्यालय लाहरडीह,गोविंदपुर-1में शिक्षिका के पद पर कार्यरत।



