▪︎ राजीव थेपड़ा
ऐसा बराबर कहा और सुना जाता है कि औरत घर फोड़ती है। मेरी दृष्टि में औरत का यह सबसे बड़ा अपमान है। एक घर बनानेवाली स्त्री को घर फोड़नेवाला बताना अपने परिवार में घट रहे तथ्यों से आंख मूंद लेने के बराबर है, क्योंकि मैं मानता हूं कि अलग होना और रहना चाहनेवाली कतिपय स्त्रियां अवश्य होती होंगी, किन्तु उसके बावजूद घर की परिस्थितियों का कुल प्रभाव ही ऐसी स्थितियों के निर्माण में सहायक होता है। इस सन्दर्भ में आदमी को एकदम से नज़रंदाज़ कर देना इस समस्या का बिलकुल गलत आकलन है !
मैं खुद भी यही सोचता हूं बरसों से क्या बेटे इतने अबोध होते हैं, जो कल की आयी उस स्त्री से, जो उसकी पत्नी बन कर आती है, उसकी बातों में आकर अपने इतने वर्षों का रिश्ता तोड़ डालते हैं ? नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है कुछ कमियां हम सब में होती हैं। कुछ लालच, कुछ स्वार्थ और कुछ अन्य बातें ऐसे बंटवारे, ऐसे झगड़े का एक माध्यम बनती हैं, लेकिन हमें अपनी गलतियां कभी दिखाई नहीं देतीं और उस बेचारी स्त्री पर अपनी उन्हीं गलतियों को हम अन्याय पूर्वक लाद देते हैं !! अगर कोई मर्द अपने परिवार से बहुत प्यार करता है, तो वह अपनी स्त्री को भी इस सम्बन्ध में सहमत कर सकता है और तब उस स्त्री को यह एहसास हो जायेगा कि नहीं मुझे इस परिवार को बांट कर कुछ भी हासिल नहीं होगा !! हम अपनी गलतियों द्वारा खुद ही एक घर तोड़ डालते हैं और फिर इस विषय में अपना अनजानापन जाहिर कर और भी ज्यादा अपनी जाहिलियत जाहिर करते हैं !! यही हमारा सच है और यही हमारे परिवार की नियति, जिसे हम आज तक देख नहीं पाये और न जाने कब देख पायेंगे !! मैं ऐसे किसी दिन के बहुत शिद्दत से इंतजार में हूं !!
मैं खुद इन चीजों का भुक्त भोगी हूं ! इसलिए इसे आसानी से समझ पाया। असल में हम सब के साथ भी यही होता है कि जो हम पर गुजरता है, उसे तो हम अच्छी तरह समझ पाते हैं। लेकिन, जिसके गवाह हम नहीं होते, उन बातों को समझने में असमर्थ होते हैं और यह बिलकुल सच है कि एक औरत किसी आदमी का मन नहीं बदल सकती ; अगर आदमी खुद विवेकवान हो ! …और, अगर मन अपने काबू में है, तो कोई भी आप को नहीं बदल सकता। आप में इतना विवेक तो होना चाहिए कि आपको अपने रिश्ते को कितनी तरजीह देनी है या उसे कितना सम्भालना है अपने परिवार को कितना बनाये रखना है। अगर इस बात को आप अपनी पत्नी को संप्रेषित कर पाते हैं, तो मैं मानता हूं कि उसे भी वही करना होगा, जो आप चाहते हैं ! हां, कभी-कभी परिस्थितियां इसके बिलकुल उलट भी हो जाती हैं ! परिवार भी कभी-कभी हमारा साथ नहीं देता है। ऐसी स्थिति में हमें परिवार को दरकिनार कर के अपने बारे में, अपने बच्चों के बारे में सोचना पड़ता है। लेकिन, अल्टीमेटली सच यही है कि जब तक हम ना चाहें, तब तक हम परिवार से अलग नहीं हो सकते। हो ना हो, परिवार भी हमें अलग कर सकता है ! बाकी आदमी एक ऐसा अति बुद्धिमान जीव है, जो अपनी गलत से गलत बात को अपने पद के अनुसार सफलतापूर्वक जस्टिफाई कर लेता है और आदमी की यही कु-विशेषता आदमी को सच मायनों में मनुष्यता से ही च्यूत करती जाती है। मगर, दरअसल आदमी के बारे में कुछ कह पाना अत्यन्त कठिन है, कर पाना तो असम्भव ही है !!
सच पूछा जाये, तो आत्म संघर्ष वहीं होता है, जहां पर आत्म-मंथन हुआ करता है ! किन्तु, स्वस्थ आत्म-मंथन के बगैर किसी प्रकार के निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता ! जब तक हम खुद में नहीं उतरते और ईमानदारी से अपना विश्लेषण नहीं करते, तब तक इस आत्मविश्लेषण का भी कोई अर्थ नहीं है ! आदमी अपने बारे में सोचते हुए प्राय: अपने सदगुणों की मन ही मन प्रशंसा करता है और अपनी कमजोरी को बिलकुल इग्नोर करता जाता है। इस प्रकार के आत्ममंथन से कुछ हासिल भी नहीं होता, इसलिए अपने जीवन में उचित विवेक या सम्यक विवेक, यह बहुत आवश्यक है। क्योंकि, आदमी को एक विवेकशील प्राणी कहा गया है, इसलिए अपने उस विवेक का उपयोग करना ही सबसे बड़ी मनुष्यता है और सही अर्थों में जो मनुष्य है, वह अवश्य ईमानदारी पूर्वक अपना आत्म-विश्लेषण करेगा, न कि वह आत्म-मुग्धता में डूबा भर रहेगा और तभी यह आत्म-मंथन कहला सकता है और तभी इस संघर्ष का फायदा उस व्यक्ति को प्राप्त हो सकता है !
अभी-अभी एक मित्र की वाल पर बहस पर एक विचार आ गया मन में कि हम अपने जीवन में अक्सर जो करने के सपने देखा करते हैं, किन्हीं विवशताओं में उन्हें तिलांजलि देनी पड़ती है। बहुत सारे कलाकार और बुद्धिजीवी या किसी प्रकार का हुनर रखनेवाले लोग सही परिस्थिति ना मिलने के अभाव में बूझ से जाते हैं। मगर, साथ ही यह भी सच है ज्यादातर लोग ऐसे माहों होते बल्कि पढाई पूरी कर जिनका एकमात्र मकसद एक अदद नौकरी पाना होत़ा है और नौकरी, जैसा कि हम जानते हैं कि आबादी के लिहाज से हमेशा कम ही रही है। इसी मुद्दे पर मित्र ने अपनी बात अपनी वाल पर रखी थी, मगर शायद यह भी कुछ लोगों को नहीं पची और यह मुद्दा भी दही का रायता बन गया। बेशक, बात तो आपकी बिलकुल मुद्दे की है, मगर यह भी एक सच है कि मुद्दे की बात अक्सर कम ही समझ आती है !!अब जिन्होंने पढ़-लिख कर नौकरी खोजने के सिवा कुछ जाना ही नहीं, उनके लिए यह मानना भी अहंकार का प्रश्न होगा ना, जिसने जो भी किया है, वही उसके अहंकार का प्रश्न बन जाता हो, जिसे वे अपने बीवी-बच्चों पर थोपता रहता है, बिना यह जाने कि यह सब सुनाने का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि इसका उलटा ही प्रभाव होता है !!