डाॅ. आकांक्षा चौधरी
पुरातन काल में एक बड़ी प्रसिद्ध नगरी थी, नाम था अंधेर नगरी। बड़ी ही भव्य नगरी थी। आप जो सोच रहे हैं, वैसा कोई चौपट राजा नहीं था वहां। हर तरफ़ अमन चैन फैला हुआ था। सारे लोग सहमति से अपना-अपना काम करते थे। उन्हें अपने राजा से कोई शिकायत नहीं थी।
शिकायत तो वह करता है, जो जानकारी रखता है। अंधेर नगरी की प्रजा को किसी तरह की जानकारी कभी हुई ही नहीं।…तो, जानकारी नहीं होने का फ़ायदा देखें कि उन्हें कोई दुख ही नहीं।
अब जानकारी हो भी कैसे ! जानकारी के लिए अंधेर नगरी में न कोई संदेश वाहक था, न कभी किसी को बाहर की दुनिया देखने दी गयी, न बाहरी दुनिया को अंधेर नगरी में प्रवेश मिला।…तो सीमित सम्पर्क, सीमित सोच, उसी तरह सीमित जानकारी। इससे ही उपजा सुख।
अंधेर नगरी में किसी को कुछ सोचने की इजाजत नहीं थी। न वहां कोई सोचता था, न किसी तरह की चिंता-फिकर होती थी। जो सोचते तो, उसकी सजा भी सोच नहीं सकते थे, इसलिए लोग सोचते ही नहीं थे।
बस, वहां एक ही नियम था, जैसे सभी भगवान के गढ़े हुए जानवर, पशु-पक्षी दुनिया में आते हैं और चले जाते हैं, वैसे ही अंधेर नगरी के इंसान भी बस धरती पर आयें और चले जायें।
…तो, शायद अब सभी पाठकगण समझ ही गये होंगे कि अंधेर नगरी इतनी प्रसिद्ध क्यों थी? नहीं समझे, तो रहने दीजिए, सोच-समझ से बस चिंता-फिकर बढ़ती है, आपकी बुद्धि नहीं। इस कथा का सम्प्रति किसी कालखंड, किसी स्थान से कोई मेल नहीं किया जाये। बस, याद आयी कथा, तो सुना दी।