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आपसी सम्बन्धों में रौब खत्म कर देता है सम्बन्ध

आपसी सम्बन्धों में रौब खत्म कर देता है सम्बन्ध

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राजीव थेपड़ा 

Arrogance destroys relationships : मर्द हो या औरत यदि सब समान हैं, तो इसमें किसी के लिए भी किसी दूसरे के लिए रौब हो भी, तो आख़िर क्यों हो ? और किसी भी किस्म के रौब की जरूरत भी आखिर क्या है ?? माने रौब भी तो क्यों हो ?? एक सहज भाव अगर दोनों में हो, तो रौब का तो प्रश्न ही नहीं उठता !! आख़िर किस बात का रौब ?? 

रौब यानी अहंकार, रौब यानी अकड़, तो भला किस बात का अहंकार ? किस बात की अकड़ ? ईश्वर ने दोनों को समान बनाया है। बेशक, दोनों के गुणों में जो फर्क है, लेकिन उस फर्क के भी कुछ आधारभूत कारण हैं, किन्तु जिसके चलते वह एक-दूसरे के पूरक बन पाते हैं, एक दूसरे के विरोधी नहीं !! जिसके कि हम अभ्यस्त हैं, क्योंकि हमें शुरू से ही मर्द और औरत की असमानता के कारण बचपन से ही एक-दूसरे का विरोधी होना सिखला दिया जाता है, जो कि बिलकुल नाजायज है ! 

लेकिन, हम इन्हीं बातों को सीखते-सीखते मर्द और औरत के बीच की खाई को समय के साथ और उम्र के साथ इतनी चौड़ी कर देते हैं कि फिर वह कभी किसी से पटने को ही नहीं आती !! किन्तु, अब जबकि हम अपने आप को सभ्य कहते हैं, पढ़ा-लिखा और शिक्षित मनुष्य घोषित करते हैं, तब तो हमारे भीतर ऐसी उल्टी-पुल्टी धारणाएं आनी ही नहीं चाहिए और अगर अभी भी ऐसा ही है, तो इसका मतलब क्या यही नहीं है कि हम उन्हीं चीजों को बनाये रखना चाहते हैं, जिनमें हमारा अहंकार कायम रहता है ?? 

…और, जब तक हम अपने अहंकार को कायम रखे रहने की भावना से ग्रसित रहेंगे, तब तक ये उल्टी-पुल्टी अवधारणाएं हमारे बीच से कभी विदा नहीं हो पायेंगी और वे सामान्य से विवाद, जो महज सामान्य संवाद से हल हो पाते हों, उन विवादों के हल तो दूर, अपने व्यर्थ के अहंकार के कारण वह सोच भी गायब हो जाती है, जो हमें एक साथ रहने में और एक-दूसरे के साथ सामान्य सामंजस्य बनाने में मदद करती है ! 

ऐसे में किसी भी समस्या के निदान की तो बात भी दूर,  अपितु इस अहंकार के कारण वह समस्या और भी अधिक बढ़ा ली जाती है और यहां तक कि उससे आपस के सम्बन्ध को भी खतरा महसूस होने लगता है ! तात्पर्य यह है कि हम ऐसे में एक-दूसरे को कुछ ऐसी घटिया बातें भी कह जाते हैं कि अगर उस पर हम सही तरीके से विचार करें, तो सम्भवत: हम यह सोच पायेंगे कि उन घटिया बातों के पश्चात क्या दोबारा हम सामनेवाले से बात करने के लायक भी हैं ? या सामने वाला हमसे बात करने लायक भी है ? एक बार बोल दिये जाने के पश्चात कोई भी शब्द वापस नहीं लौट सकता।  

जीभ से निकली हुई कोई भी कड़वी/कटु/तुच्छ बात सम्बन्धों को सदा-सदा के लिए छिन्न-भिन्न कर देती है। बावजूद उसके हम अपने रौब रूपी गुस्से के कारण उन कड़वी बातों से परहेज नहीं करते ! ऐसे में हमें यह भी एहसास नहीं होता कि सामनेवाला हमारी उन घटिया, तुच्छ और कड़वी बातों के पश्चात दोबारा बात करे भी तो क्यों करें ? क्योंकि, हमने अपनी कड़वी बातों के जरिये सामनेवाले को इस बात का आभास तो दे ही दिया है कि हमें उससे कोई मतलब नहीं है ! मतलब मुझे आपस के सम्बन्धों में कोई रस नहीं है ! ऐसे में समाबन्ध निभें, तो क्यों निभें ? और निभें, तो कैसे निभें ?

…तो, अगली बार गुस्सा करते समय आप अपने मुंह से कुछ गंदे शब्दों को निकालने से पूर्व यह अवश्य सोच लें कि इसका परिणाम क्या होगा? यदि आप यह सोच पाने में सक्षम हुए, तब शायद आपको अपने द्वारा की जा रहीं त्रुटियों का आभास हो सके।…और, शायद आप उन गंदे शब्दों को कहने के पूर्व अपने आप को देख सकें और उन शब्दों को अपने मुंह में ही रोक सकें। लेकिन, उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसे शब्द आपकी सोच में आयें, तो आयें भी क्यों ??

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