राजीव थेपड़ा
ईश्वर की आराधना करते हुए उसकी पूजा करते हुए भी हम कहां तक उस अराधना में, उस पूजा में अपने आप को लीन कर पाते हैं, तल्लीन कर पाते हैं !! अनेक दूसरों, दूसरी चीजों में अटका पड़ा हमारा मन, तरह-तरह की आहटों से चौंकता हुआ हमारा मस्तिष्क, पहली बात तो उस आराधना में तन्मय होता ही नहीं, लेकिन होता भी है, तो केवल और केवल अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए होता है !!
ईश्वर की आरती करते हुए हमारी ईश्वर से डिमांड सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी अपनी लालसाओं को पूरा करने की होती है। उसकी पूजा की शर्त यही होती है कि हम तेरी पूजा करें, तो तू हमें मन वांछित फल प्रदान करें !!
हर मनुष्य की ईश्वर से सबसे बड़ी अभीप्सा यही है कि वह उसे सुख-समृद्धि, शांति, ऐश्वर्य ; अर्थात वह सब कुछ उसे प्रदान करें, जिसका वह मनुष्य भूखा है !! धरती के सारे मनुष्य अपने देवताओं को रिझाने के लिए न जाने किस-किस तरह के प्रयत्न करते हैं, लेकिन उन प्रश्नों में देवताओं को प्रसन्न करने के बदले अपने लिए डिमांड रहती है और इसे हम देवताओं की पूजा कहते हैं !! ??
मुझे बार-बार इस बात पर आश्चर्य होता रहता है कि अपने ईश्वर से जिस प्रार्थना को करते हुए हम जो चीज उससे मांग रहे हैं, उसके लिए हमारे भीतर क्या थोड़ा-सा भी देवत्व बचा हुआ है ? क्या थोड़ी-सी भी उसकी पात्रता है ?
ईश्वर ने तो हमें धरती पर भेजा धरती के समस्त लोगों के साथ मिल-जुल कर रहने के लिए, एक समुच्य बना कर जीने के लिए ! लेकिन, हम…हम तो तरह-तरह के प्रोपगैंडों में डूबे न केवल मनुष्य के, बल्कि हर जीव के ; यहां तक कि धरती के वातावरण के, पर्यावरण के भी विरोधी हो बैठे हैं। हमारा जीवन धरती की इच्छाओं के ठीक विपरीत जिया जा रहा है ! हमारा जीवन इस सौरमंडल की प्राकृतिक जरूरतों के विपरीत जिया जा रहा है और हमारा जीवन एक-दूसरे के खिलाफ तो खैर है ही !!
एक-दूसरे के साथ भी हम उसी हद तक हैं, जहां तक हमारे खुद के स्वार्थ सध सकते हों !! जहां हमारी खुद की पारी दूसरे के स्वार्थों को साधने की आती है, तब हम हिचक जाते हैं, झिझक जाते हैं, पीछे हटने का उपक्रम करने लगते हैं !!…तो यह है हमारा जीवन !!
…और, हम प्रभु की आराधना करते हैं !! मुझे हंसी आती है इन प्रार्थनाओं पर !! इन आराधनाओं पर !! हालांकि, अपने परिवार के साथ इन नवरात्रों में मां की आरती मैं स्वयं भी गाता हूं। इसके अलावा किसी किस्म के पूजा-पाठ या कर्मकांड में मेरा रस नहीं है !! लेकिन, ईश्वर की भक्ति, उसकी आराधना, उसकी पूजा का अर्थ मेरे लिए बहुत गहन है !
यदि ईश्वर है, तो मैं अपने हृदय की समूची अंतरात्मा के साथ भक्ति-मान होकर इस संसार के साथ साहचर्य से जीने की भावना रखनेवाला एक मनुष्य हूं। अपने किसी भी किस्म के कर्तव्य से न डिगनेवाला, ऐसा मनुष्य मैं बनना चाहता हूं, मेरी सारी चेष्टाएं एक बेहतर से बेहतर मनुष्य बनने की है !!
हम सब की चेष्टाएं भी तो वही होनी चाहिए ! ईश्वर की आराधना करते हुए हम सब अपने भीतर के असुर को मारने के लिए कब जागृत हो पायेंगे ? हम कब अपने ईश्वर से यह डिमांड करेंगे कि हे ईश्वर ! तू हमारे भीतर जमे हुए हर तरह के असुर को मार कर मुझे तेरी कृपा का पात्र बनने लायक इंसान बना, मुझे वैसा बना कि मैं तेरी कृपा पा सकूं और फिर मेरा पात्र अपनी कृपा से भर दे !! तब तो उन प्रार्थनाओं का मेरे लिए कोई अर्थ बचता है !! वरना जिस किस्म की थोथी प्रार्थनाएं हम करते हैं, उस पर कभी ध्यान से सोचिए, आपको हंसी आ जायेगी और अगर आप में जरा भी आत्मा हुई, तो आपको सबसे ज्यादा खुद पर शर्म आयेगी !!