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लेकिन, प्रश्न यह है कि अंधा है कौन…?

लेकिन, प्रश्न यह है कि अंधा है कौन…?

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राजीव थेपड़ा 

एक पक्ष दूसरे पक्ष को अंधभक्त बताता है ! दूसरा पक्ष पहले पक्ष को देशद्रोही बताता है !! किन्तु, एक तरह से अंधभक्त होना भी देशद्रोही होना ही हुआ और दूसरी तरह से देशद्रोही होना भी अंधत्व की पराकाष्ठा हुई !! देखा जाये, तो दोनों ही स्थितियां हमारे एक व्यक्ति यह समाज के रूप में एक देश के सभ्य और वास्तविक नागरिक होने के अनुरूप नहीं है ! यानी दोनों ही पक्ष के लोग एक देश के अच्छे नागरिक होने का बोध नहीं देते !

लेकिन, तुर्रा यह कि दोनों पक्षों को अपने आप पर गुरूर इतना है कि दोनों पक्ष ही अपने आप को सर्वश्रेष्ठ देशभक्त बताने से संकोच नहीं करते !! यह बहुत अजीब बात है ! अचंभित करनेवाली बात है कि विचारों का मतभेद व्यक्ति को, समाज को, संगठनों को, राजनीतिक दलों को एक-दूसरे से इतना विलग कर देता है कि वह भयंकर आपसी शत्रुता बन जाती है और इस पर भी मजेदार बात यह है कि व्यक्तियों द्वारा इस संगठन से उस संगठन में जाते ही, इस राजनीतिक दल से उस राजनीतिक दल में जाते ही प्रवृत्तियां बिलकुल उलट जाती हैं !! यानी एक बार फिर से इधरवाला उधर को और उधरवाला इधर को गरियाना शुरू करता है !!

यानी यह किसी भी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रश्न ही नहीं है ! यह एक तरह से रोजगार का प्रश्न है कि जिसे जहां रोजगार मिला हुआ है, वह वहां के गुण गा रहा है !! लेकिन, उस गुण गाने में भी उसकी अपनी कोई गरिमा नहीं है ! उसके अपने कोई गुण नहीं हैं !! उसको स्वयं की लाइन बड़ी करने की कोई प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि दूसरे की लाइन छोटी करना या दूसरे को काटना ही उसका एकमात्र शगल है या ध्येय !!

…तो, एक बार फिर यहां पर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार की प्रतिबद्धताओं से कोई भी देश बहुत अच्छी तरह से चल सकता है? क्या इस तरह की शत्रुताओं से किसी भी देश में मानवीय सम्बन्धों से लेकर अन्य किसी भी प्रकार की चीजें उचित प्रकार से चल सकती हैं ? …और, उत्तर भी हम सब जानते हैं कि कतई नहीं ! किसी भी तरह नहीं !…तो फिर, पुनः अगला प्रश्न यह उठता है, तो फिर हम यह कर क्या रहे हैं ? हमारे बीच हममें से ही चुन कर गये हुए लोग विभिन्न संस्थाओं में जाकर, विभिन्न संगठनों में, विभिन्न राजनीतिक दलों में जाकर यदि हमें ही बांटने का प्रयास करते हैं, तो फिर हमें क्या करना चाहिए?

क्या इस तरह मुंह ढंक कर हम अपने नागरिक धर्म का उचित ढंग से निर्वाह कर पा रहे हैं ? क्या हमें इस प्रकार की चुप्पी धारण करते हुए और ऐसे तमाम स्वनामधन्य कुरूप लोगों का साथ देते हुए अपने आप को अच्छा नागरिक कहने का अधिकार है ? क्या हम किसी भी एक पक्ष में खड़े रह कर एक देश के रूप में अच्छे नहीं हो सकते ? क्या हम विकार रहित राजनीति और विकार रहित संगठन नहीं खड़े कर सकते?

 …तो फिर, हम किस दिशा में जा रहे हैं? हमारी चाहते क्या हैं ? सिर्फ रोजगार, लालच प्रभुसत्ता और स्वार्थ यदि इतना भर ही हमारे जीवन का मूल है, तो फिर धिक्कार है हमें, हमारे एक देश के, या किसी भी देश के नागरिक होने पर !!

…और, अब अंतिम प्रश्न यह है कि इस प्रकार का रंडयापा हम कब तक करते चले जायेंगे? …और, कब तक एक देश के मान को, उसके गौरव को इसी प्रकार गिराते हुए अपना जीवन निर्मूल करते हुए खत्म हो जायेंगे !!

जो कुछ जितना बाहर है, उतना ही है भीतर भी !

इस धरती पर 

जो कुछ जितना बाहर है 

उतना ही है भीतर भी !

पहाड़-नदी-समन्दर-खेत 

फ़ूल-बादल-जंगल-रेत 

पंछी-पशु-हवा-मनुष्य 

भावना-उद्वेलन-विचार-संवेदन

ये सब कुछ दीखते हैं बाहर 

हैं सब किन्तु हमारे ही भीतर 

बस ! थोड़ा-सा खंगालना खुद को 

बस ! थोड़ी-सी पहचान खुद की 

बस ! थोड़ी-सी बेचैनी 

खुद में समाने की और फिर 

खुद से बाहर आने की 

खुद में समाना, खुद को उड़ेलना 

नदीपना ही तो है हमारा, नहीं क्या ?

आसमान ऊपर है, या 

खुद की ही आंखों के भीतर ??

सोचो तो ज़रा…और,

तब हम हो जाते हैं कुछ के कुछ !

हमको सिर्फ मनुष्य नहीं होना होता 

नदी-पहाड़-आसमान-समन्दर 

खेत-जंगल-पंछी-जीव-फ़ूल 

सब के सब, जब हो जाते हैं हम 

हम खिल जाते हैं मनुष्य की तरह 

हो जाते हैं पूरे मनुष्य !!

@rajeevthepda

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