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कॉरपोरेट जगत

कॉरपोरेट जगत

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डाॅ. आकांक्षा चौधरी 

शहरों और नगरों के क्षेत्र वर्द्धन ने बाज़ारीकरण को बहुत बढ़ावा दिया है। बाज़ारीकरण ने मुनाफ़ा कमाने के जुनून को बहुत उकसाया है। इसी मुनाफ़ा वसूली की जद्दोजहद ने बाजार के हर वर्ग को कॉरपोरेट जगत या सेक्टर में बदल कर रख दिया है। अब तो सरकारी संस्थाएं भी धीरे-धीरे निजीकरण की ओर बढ़ रही हैं। वह कहते हैं न “दूर के ढोल सुहावने”, ठीक उसी तर्ज़ पर कॉरपोरेट जगत और निजी संस्थानों की आकर्षक प्रचार प्रणाली नये कर्मचारियों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने में सफल होती हैं।

ये कॉरपोरेट जगत जन्नत में बहत्तर हूर मिलने जैसा छद्म स्थान है, जिसके मिलने की कल्पना में हर कर्मचारी कुछ भी कर गुज़रनेवाली मनोस्थिति में डोलता रहता है। कर्मचारियों की कुछ ऐसी कैटेगरियां मिलती हैं, जिनके प्रकार बड़े अलग-अलग क़िस्म के हैं। एक सबसे सीधे क़िस्म के कर्मचारी जो सबसे नये हैं, जो न्यू ज्वाइनर हैं और जिन्हें अभी कोई पॉलिटिक्स समझ नहीं आती। …तो, ये “ न्यू फ्लाई” बड़े-बड़े पोस्ट धारी मैनेजर, वाइस मैनेजर, चेयरमैन आदि के इशारों पर नाचने के लिए भी तैयार रहते हैं। इन्हें बताया जाता है कि यही तो सबसे ज़रूरी काम है।

फिर एक कैटेगरी आती है, जिनके पास कॉरपोरेट में काम करने का कुछ सालों का तजुर्बा है और ये कम्पनी के लिए “मनी मशीन” हैं। इनका रेड कार्पेट बिछा कर स्वागत किया जाता है। बॉस भी इनकी छोटी-मोटी अनुशासनहीनता को इग्नोर करके चलता है। कॉरपोरेट के लिए पैसा जुटाने में ये एक नम्बर पर होते हैं। इस वजह से इनकी ऊपरी कमाई का अम्बार मैनेजमेंट को नज़र नहीं आता। इनमें से कुछेक अपनी जवानी के जोश में भी डगमगाते डोलते रहते हैं, लेकिन जिन कलियों पर ये भंवरे डोलते हैं, वे भी बड़ी खुश ही रहती हैं कि चलो इस मास्टर सेटर के साथ मेरी भी कॉरपोरेट भूमिका फिक्स्ड है।

एक कैटेगरी “बूटलिकर्स” कहलाती है। ये पुराने, पुख्ता किस्म के बड़े ही बेशर्म, बेमुरौव्वत लोग होते हैं, जिनको पूरे ऑफिस में बॉस के चरणों के सिवाय और कहीं नहीं पायेंगे। इस कला के ये महारथी होते हैं। पता नहीं, समर्पण और प्रतिबद्धता की इतनी भारी मात्रा इनमें आती कहां से है? क्रोध तो इनमें होता ही नहीं। बॉस इन्हें जूतों की नोक से धक्का भी मार दे, तब भी ये बुरा नहीं मानते। गांधी जी और बुद्ध के शांति के ज्ञान को इसी कैटेगरी के कर्मचारी सबसे ज़्यादा फौलो करते हैं।

कुछ आलसी क़िस्म के “स्लीपर क्लास” इम्प्लॉयी होते हैं, जिनके असाइनमेंट कभी भी समय पर पूरे नहीं होते। ऊपर से कितनी भी गालियां पड़ें, ये चिकने घड़े होते हैं, जिनके ऊपर से पानी फिसल जाता है। कुछ “एंग्री मैन” भी होते हैं, जो बात-बात पर अपनी जेब से इस्तीफ़ा निकाल कर बॉस के टेबल पर पटक सकते हैं। इनका पंच लाइन होता है – “ जो डर गया, समझो मर गया!” इसलिए ये निडर होते हैं। 

इस तरह के कर्मचारियों के कई नये वर्गीकरण कॉरपोरेट जगत में आजकल देखने को मिल रहे हैं। संदर्भ पर लेखनी भले रुक जाये, लेकिन नये कर्मचारी का आना और पुराने का जाना एक अंतहीन सिलसिला है।

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