राजीव थेपड़ा
Struggle is human nature?? : कोई भी बदलाव समय-स्थान-परिस्थिति सापेक्ष हुआ करता है। साथ ही, यह भी सच है कि कभी तो कोई बदलाव स्वतःस्फूर्त हुआ करता है, तो कभी कोई बदलाव किन्ही दबावों के तहत लाया जाता है।
यद्यपि, इन दोनों बातों में भी यह जरूरी नहीं कि ये दोनों बदलाव वास्तव में किसी अच्छाई से अभिप्रेत हों ही, क्योंकि कभी-कभी किसी भेड़चाल के अंतर्गत व्यक्ति या समाज गलत हो सकते हैं, तब बदलाव के सही और गलत होने की कसौटी क्या हो ??
…तो, जाहिर है, ये कसौटियां कहीं तो बदलती हुई मान्यताओं के अनुसार बदलती भी रह सकती हैं, तो कहीं तमाम कालों में एक भी पायी जा सकती हैं, तो कुल मिला कर बहुत कठिन है इस बाबत कोई भी बात करना। किन्तु, सामाजिक संदर्भ में बदलावों का उस समाज के व्यक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके अंतर्गत आकलन किया जाता है। यदि वह प्रभाव बुरा है, तो वह बदलाव गलत माना जाता है और यदि वह प्रभाव अच्छा है, तो उस बदलाव को बेहतर माना जाता है।
हालांकि, यहां भी एक दूसरी बात भी लागू होती है, क्योंकि कभी-कभी तत्कालीन लाभ व्यक्ति या समाज को दिख पड़ते हैं। जबकि, कालांतर में उसकी कई गुना हानि भी देखने को मिल सकती है।
…तो, इन सब बातों को देखते हुए बदलावों के बारे में कोई भी बात निश्चिततया कही जानी असम्भव-सी मालूम पड़ती है और कुल मिला कर बात वहीं पर आ जाती है कि समय, स्थान और परिस्थितियों के सापेक्ष में उस बदलाव का कुल समाज पर ऋणात्मक प्रभाव है या घनात्मक ; इसी से बदलाव को आगे जारी रखने या खत्म करने की कोशिश की जा सकती है।
लेकिन, तब भी एक बात और आती है बदलाव की बाबत, वह यह है कि समाज में अपेक्षाकृत कमजोर तबकों के बदलाव उस समाज के ही मजबूत तबकों की स्थिति के अनुरूप ही हुआ करते हैं, जब तक कि वह स्थिति उन कमजोर तबकों के बहुत ज्यादा खिलाफ ना हों।
सामाजिक अर्थों में यह कमजोर तबके अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कहीं गरीब भी हो सकते हैं, कहीं बूढ़े भी हो सकते हैं, कहीं स्त्रियां भी हो सकती हैं, तो कहीं बच्चे भी हो सकते हैं, जिनके बदलावों की गति और दिशा ; दोनों ही अक्सर उनके मजबूत लोग तय करते हैं और यहीं पर आकर बदलावों की दिशा कमजोर लोगों के लिए खराब हो जाती है, क्योंकि मजबूत लोग अपने मनोनुकूल, अपने लाभ की दृष्टि से उन बदलावों को संचालित करना चाहते हैं और ऐसा न हो पाने पर द्वंद्व शुरू हो जाता है ।
…तो, वहीं इसका उल्टा भी सच है कि यह कमजोर तबके भी अपने हित में बदलाव चाहते हैं और ऐसा नहीं होने पर द्वंद्व शुरू हो जाता है। शायद ऐसा हमेशा होता रहेगा, क्योंकि मनुष्य मुख्यत: स्वार्थ की भावना से वशीभूत प्राणी है। हालांकि, स्वार्थ तो प्रत्येक जीव में होता है।
लेकिन, मनुष्य की बुद्धिमत्ता उसके स्वार्थ को उसकी मजबूती के अनुरूप कई गुना बढ़ा दिया करती है और यहीं पर समाज के प्रत्येक खंभे आपस में टकराते हैं। क्योंकि, प्रत्येक खम्बे को ही यह लगता है कि उसके बगैर छत का कोई वजूद ही नहीं !! यह संघर्ष सदा ही जारी रहा है और शायद आगे भी इसी तरह जारी रहेगा !!
जीवन यही है…अनवरत संघर्ष और विश्वासघातों का दूसरा नाम !! मगर, मुश्किल यही है कि इन सब के बीच भी हमें उन्हीं जिजीविषाओं के साथ जीना होता है, जो हमारे लिए जरूरी होती हैं ।
मगर, हमारे भीतर यदि जिजीविषाओं का अंत हो जाये, हमारे भीतर यदि आशाओं का अंत हो जाये, तो फिर जीवन में कुछ नहीं बचेगा, इसलिए जीवन में ऐसा तो सदा-सदा से ही होता आया है और सदा-सदा ही होता भी रहेगा और हमें उन सबसे उबरने में अपनी सारी ताकत झोंक देनी होगी और जितना जल्दी हम इन सबसे उबर जायें, उतना ही हमारे लिए और हम पर आश्रित लोगों के लिए अच्छा होगा !!
यदि हम खुद से प्यार करते हैं, यदि हम कुछ अपने लोगों से प्यार करते हैं, तो हमें अपने आप को संकट की हर घड़ी से खुद को निर्लिप्त रखते हुए जीना आना ही चाहिए। अन्यथा, यह न जीने देनेवाले लोग हमें मार देने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, इसलिए मजबूती हर हाल में जरूरी है !!
मजबूती इसलिए भी जरूरी है कि आप उनको हरा सकें, जो दरअसल आपको हराना चाहते हैं। किन्तु, जो अपने आप में गलत भी हैं, इसलिए आपका जीवन्त बना होना बहुत जरूरी ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है।
…तो, मेरी दुआ है, आप इतने जीवंत बनो, इतने मजबूत बनो कि आनेवाली हर परिस्थिति को हरा कर और हर तरह की कठिनतम चुनौतियों से पार पाकर उन समस्त लोगों को खामोश कर सको, उन समस्त ग़लत लोगों को सदा के लिए चुप कर सको, जो आपका भला नहीं चाहते और आज आप के खिलाफ़ लगे हुए हैं !!
जानवरों का अपमान क्यों ??
बहुत समय से यह विचार मन में आता रहा है कि हम अपने जीवन में गालियों के रूप में जानवरों के नाम का उपयोग करते हैं, क्या उससे जानवरों का अपमान नहीं होता ??
गधा, कुत्ता, उल्लू, सूअर, गिरगिट आदि जिन जानवरों के नाम की हमने गालियां बनायी हुई हैं, उनके गुणों के पासंग भी हैं हम ?? कुत्ता, जो एक वफादार प्राणी है, सूअर…जो गंदगी साफ़ करता है, गधा…जो कर्मठता का पर्याय है और गिरगिट तो अपनी किसी असुरक्षा के भय से रंग बदलती है, न कि आदमी की तरह चुपके से हमला करने के लिए रंग बदलती हो !! जानवरों के इन गुणों के सर्वथा उलट है आदमी और वह जानवरों के नाम की गालियां बकता है, यह क्या मज़ाक है !! क्या सम्मान पाने की बपौती केवल इंसान की है ?? ऐसा लगता है कि गलती से कभी जानवर यह जान भी गये कि मनुष्य नाम का यह जीव सदा से उनको गालियों का पर्यायवाची बनाये हुए है, तो वे आदमी को ऐसा दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे कि धरती पर से आदमी नाम के जीव का ही सफाया हो जायेगा !!