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🗓️ Mon, Mar 31, 2025 🕒 6:57 AM

मौसम के इशारों को समझो… सम्भल जाओ!!

मौसम के इशारों को समझो… सम्भल जाओ!!

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राजीव थेपड़ा 

Understand the signals of the weather… be careful!! : चारों तरफ धूप फैलती जा रही है…गर्मी का साम्राज्य सब दिशाओं को अपने आगोश में लेता जा रहा है…और, अमीर लोगों के घरों में कूलरों, ए.सी.और सबको ठंडक पहुंचाने के अन्य साधन सर्र-सर्र….की आवाजें करते धड़ल्ले से चलने लगे हैं। जहां तक इनकी हवा जाती है, वहां तक तो सब ठीक-ठाक-सा लगता है। मगर, उसके बाद गर्मी की भयावहता वैसी की वैसी…यानी विकराल और खौफनाक….!! 

आदमी को मौसमों से हमेशा से ही डर लगता रहा है। मगर, उसके बावजूद उसने जो कुछ भी धरती पर आकर किया है, उससे मौसमों का मिजाज़ खराब ही हुआ है। आदमी की करनी से से वह क्रमश भड़कता ही जा रहा है। आदमी की चाहना भी बड़ी अजीब और बिलकुल विपरीत-सी होती है। आदमी से जो भी चीज़ ईजाद होती है, वह होती तो दरअसल उसके सुकून के लिए है, मगर उसके ठीक उल्टा उससे धरती का वातावरण खराब से और खराब हुआ जाता है और खराब भी क्या ऐसा-वैसा….!! जीने लायक भी नहीं रहता धरती का वातावरण। किसी जमाने में बेशक आदमी धरती के रहमो-करम पर निर्भर होता होगा, अब तो धरती की आबो-हवा आदमी के रहमो-करम पर निर्भर हो चुकी है। वह चाहे तो अपनी अनाप-शनाप इच्छाएं त्याग कर अभी भी धरती को उसका सुगढ़ स्वास्थ्य लौटा सकता है और धरती के आंचल के साये में किसी मां के अपनापे की भांति किल्लोल करता हुआ आनन्द पूर्वक जी-खा-खेल सकता है !!

 क्या यह बहुत अजीब-सी बात नहीं है कि आदमी को जीना धरती पर ही होता है। उसे अपनी सारी इच्छाएं धरती पर धरती के मार्फ़त ही पूरी करनी होती हैं। और इसके उल्टा धरती ही जैसे उसके रास्ते में रुकावट बन जाती है। हालांकि, धरती ने कभी भी किसी को भी कुछ भी करने से रोका नहीं है। मगर, आदमी का हर कार्य जैसे एक दलदल की तरह होता है। एक तरफ तो वह सुविधाओं के बीच सुकून से जीना चाहता है, तो दूसरी तरफ उसी के कार्यों का परिणाम उसे क्रमश: मौत की ओर ले जाता हुआ प्रतीत होता है और मज़ा यह मौत की समूची भयावहता के बावजूद आदमी अपने लिए वही सुविधाएं चुनता है…बुनता है, जो उसके तत्काल को बेहतर बनाती है। हालांकि, यह भी सच ही है कि आदमी यह भी जानता है कि एक क्षण ही बाद आनेवाला भविष्य ही उसके उस क्षण का तत्काल होगा। मगर  फिर भी…!!!

तो मौसम है कि बिदकता ही जाता है और आदमी नाम का यह जीव हर प्रकार के “कोपेनहोगेनों” और धरती को वापस स्वर्ग बनाने के अपने तमाम दावों-प्रतिदावों के बावजूद उसी दलदल की ओर लगातार बढ़ता ही जाता है, जिसमें कि धंस कर उसकी अकाल जान जानी निश्चित है और बस इसी करके मौसम बिदक रहे हैं। आदमी के साथ धरती का समूचा जीवित जगत भी रोता जा रहा है। आदमी एक ऐसा भयानक जीव है, जिसने सिर्फ धरती का ही नहीं, अपितु समूचे अन्तरिक्ष का “शिकार” कर डाला है। अब यह बात अलग है कि वह खुद अपना शिकार बन चुका है………!!

खुदा ने जब आदमी को धरती पर भेजा होगा तब शायद यही सोचा होगा कि यह जीव समूची धरती को रंग-बिरंगा कर डालेगा और इसके जीवन को सुखी और समृद्द बनायेगा। जबकि, अब यह सोच-सोच कर तड़पता होगा…अपना सर धुनता होगा कि हाय उसने आदमी को क्यूंकर बना डाला।…और, शायद मौसमों का मिजाज़ खुदा खुद बदल रहा हो, ताकि किसी तरह धरती पर प्रलय आ जाये और बेशक हज़ारों प्राणी काल-कलवित हो जायें, मगर आदमी नामक यह जीव सदा के लिए धरती से विदा हो जाये।

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