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फिर आया लोकतंत्र का महापर्व

फिर आया लोकतंत्र का महापर्व

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The great festival of democracy has come again : 2024 के लोकसभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। आशा के अनुरूप ही तारीखें भी घोषित हुई हैं। इसके साथ ही सत्ता पक्ष और विपक्ष में बयानबाजी भी शुरू हो गयी है। यह लगातार तेज ही होती जा रही है। दरअसल, यही लोकतंत्र की सुन्दरता भी है। संसद के दोनों सदनों में तो इनकी नोक-झोंक दिखती ही है, अपनी-अपनी जनसभाओं में भी ये एक-दूसरे पर खूब शब्द बाण चलाते हैं। देश में होनेवाले ये आम चुनाव इस बार कई मायनों में महत्त्वपूर्ण हैं। इस चुनाव से राजनैतिक स्थिरता से लेकर अगले 20 वर्षों के विजन की तस्वीर भी साफ हो जायेगी। 20वीं सदी के अंतिम दशक पर यदि गौर करें, तो वह राजनैतिक अस्थिरता का पर्याय बन गया था। लेकिन, 21वीं सदी अपने साथ स्थिरता लेकर आयी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। हालांकि, 1996 में उनका पहला कार्यकाल महज 13 दिनों का ही रहा। 1998 में भी उनकी सरकार महज एक वोट से विश्वास मत हार गयी। लेकिन, 1999 में उन्होंने फिर वापसी की और 13 दलों के साथ गठबंधन कर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बनायी, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। फिर 2004 में आयी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार। यह भी 10 दलों के साथ गठबंधन कर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के नाम से अस्तित्व में आयी। इसने लगातार अपने दो कार्यकाल पूरे किये। इसके बाद आया 2014 का चुनाव, जिसने 1989 से चले आ रहे अल्पमत सरकारों के दौर पर विराम लगाया और एक बार फिर केन्द्र में पूर्ण बहुमतवाली सरकार बनवायी। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह सम्भव हो सका। सरकार बनी भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ही। पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ने सहयोगी दलों में से किसी को नहीं छोड़ा। सभी को साथ रखा और आज तक श्री मोदी के प्रधानमंत्रित्व में केन्द्र में सरकार चल रही है। अब इस बार के चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व अगले 20 वर्षों का विजन पेश कर रहा है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इसे लोकतंत्र बचाने का अंतिम अवसर बता रहा है। दरअसल, सत्तारूढ़ भाजपा इन चुनावों में जिन निर्णयों पर सबसे अधिक जोर दे रही है, वे निश्चित रूप से बीते 05 वर्षों में लिये गये हैं, लेकिन ये वे मुद्दे हैं, जो दशकों से भाजपा के मूल मुद्दों के रूप में देश में गूंजते रहे हैं। बात चाहे राममंदिर की हो, अनुच्छेद 370 की हो अथवा सीएए की हो या फिर ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पूजा शुरू होने की; ये सभी मुद्दे भाजपा के इस दावे को सबलता प्रदान करते हैं कि वह जो कहती है, करके दिखाती है। जहां तक विपक्षी दलों की बात है, तो उनकी आपसी खींचतान का जनता में जो संदेश गया है, उसका इन चुनावों में निश्चित रूप से प्रभाव दिखेगा। हालांकि, उन्होंने अपना गठबंधन आईएनडीआईए बनाया है। इसके जरिये हर सीट पर साझा प्रत्याशी खड़ा करने की उनकी रणनीति थी। लेकिन, यह राष्ट्रीय स्तर पर सम्भव नहीं हो पाया। हां, कुछ राज्यों ; यथा दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में बात अवश्य बनती दिख रही है। नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी और ममता बनर्जी का आईएनडीआईए से बाहर रहने का निर्णय भी विपक्षी एकता को बहुत बड़ा झटका है। विपक्ष महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे पुराने मुद्दे ही उठा रहा है। अब मतदाताओं पर इनका कितना प्रभाव पड़ता है, यह समय ही बतायेगा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा कितना कारगर साबित हुई है, यह भी इन्हीं चुनावों में पता लग जायेगा। बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा कि 2024 के संसदीय चुनावों में देशवासी किसके हाथ में सत्ता की बागडोर सौंपते हैं।

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