राजीव थेपड़ा
मैं भूत बोल रहा हूं…!! बहुत दिनों से दुनिया के तरह-तरह के धर्मग्रंथों-दर्शनशास्त्रों, धर्मों की उत्पत्ति-उनका विकास और भांति-भांति के लोगों द्वारा उनकी भांति-भांति प्रकार से की गयी व्याख्या को पढ़ने-समझने-अनुभव करने की चेष्टा किये जा रहा हूं। आत्मा-ईश्वर-ब्रह्माण्ड, इनका होना-ना होना, अनुमान-तथ्य-रहस्य-तर्क, तरह-तरह के वाद-संवाद और अन्य तरह-तरह विश्लेषण-आक्षेप तथा व्यक्ति-विशेष या समूह द्वारा अपने मत या धर्म को फैलाने हेतु और तत्कालीन शासकों-प्रशासकों द्वारा उसे दबाने-कुचलने हेतु किये गये झगड़े- युद्ध ; यह सब पता नहीं क्यों समझने-समझाने से ज्यादा मर्माहत करते हैं। मगर, किसी भी प्रकार एक विवेकशील व्यक्ति को ये तर्क मनुष्य के जीवन में उसके द्वारा रचे गये अपने उस धर्म-विशेष को मानने की ही जिद का औचित्य सिद्ध करते नहीं प्रतीत होते!! धर्म की महत्ता यदि मान भी लें, तो किसी एक वाद या धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु किये जा रहे युद्धों का भी औचित्य समझ से परे लगता है! अगर यही है धर्म, तो धर्म हो ही क्यों ??
धरती पर तरह-तरह के मनुष्यों द्वारा तरह-तरह का जीवन बिताये जाने के आधार पर विभिन्न पूर्व-जन्मों के औचित्य…किसी नालायक का ऐश-विलास-भोग आदि देख कर या किसी लायक का कातर-लोमहर्षक जीवन देख कर कर्म-फल-शृंखला और कर्म फलों का औचित्य….. सिद्ध किया जाता है !! यानी जो कुछ हमें तर्कातीत प्रतीत होता है, उसे हम रहस्यवादी बातों द्वारा उचित करार दे दिया करते हैं और मुझे यह भी विचित्र लगता है कि कोई वहशी- हरामखोर-लालची-फरेबी-मक्कार- दुष्ट व्यक्ति, जो करोड़ों-अरबों में खेलता हुआ दिखाई देता है या वे जो समस्त लोग, जो आस्थावान-श्रद्धावान और विवेकवान लोग होने के बावजूद दरिद्रता एवं अभावों भरा एक फटेहाल जीवन जीने को अभिशप्त है, तिस पर भी अन्य तरह-तरह की आपदाएं…इन सबमें साम्य आखिर क्या है…?? क्या यही कर्म-फल है…??
इस तरह के प्रश्न अनेकानेक विवेकवानों द्वारा पूछे जाते हैं कि समाज में इतनी घोर अनैतिकता क्यों है ?? क्यों कोई इतना गरीब है कि खाने के अभाव में, छत के अभाव में, दवाई के अभाव में, या कपड़ों के अभाव में ठण्ड से या लू से या बाढ़ से मर जाता है ?? तरह-तरह की आपदाओं और बीमारियों से जूझने, उस दरम्यान संचित धन के खत्म हो जाने और उसके बावजूद पीड़ित के मर जाने और उसके बीवी-बाल-बच्चों के एकदम से सड़क पर आ जाने की घटनाएं भी रोज देखने को मिलती हैं !! ….फिर भी ईश्वर है !? तो क्या यह सब होना भी हमारे कुकर्मों का फल है !
मगर, दरअसल इस प्रश्न को ठीक पलट कर पूछा जाना चाहिए (ईश्वर है/नहीं है, के तर्कों को परे धर कर) कि कोई बेहद धनवान है और हम यह भी जानते हैं कि यह धन उसने येन-केन-प्रकारेण या किस प्रकार पैदा या संचित किया है, या हड़पा है या सीधे-सीधे ना जाने कितनों के पेट पर लात मार कर कमाया है !! (या हरामखोरी की है!!) और वह इतना क्रूर है कि उस-सबके बावजूद अपने समाज में व्याप्त इस असमानता के बावजूद (जिसका एक जिम्मेवार वह खुद भी है !!) वह अपने संचित धन के वहशी खेल में निमग्न रहता है…! अगर ईश्वर है, तो उसके भीतर भी क्यों नहीं है और अगर उसके भीतर नहीं है, तो फिर हम यह क्यों ना मान लें कि ईश्वर नहीं ही है !!??
अगर ईश्वर है, तो सबमें होगा अथवा होना चाहिए !! अगर ईश्वर है, तो मानवता इतनी-ऐसी पीड़ित नहीं होनी चाहिए !! अगर ईश्वर है, तो कर्मफल का बंटवारा भी वाजिब होना चाहिए !! …..मगर, जो फल हम आज भोग रहें हैं, वह तो हमारे किसी अन्य जन्मों का सु-फल या कु-फल है ना….!! …तो, बस इसी एक बात से ईश्वर होने की बात, उनके होने की उपादेयता भी साबित हो जाती है !?
इस तरह की बातों पर माथा-फोड़ी करने के बजाय अगर हम इस बात पर विचार कर पायें, तो क्या यह श्रेयस्कर नहीं होगा कि हम अगर खुशहाल हैं और हमारे पास इतना अधिक धन है कि ना जाने हमारी कितनी पीढ़ियां उसे खायें…फिर भी हमारे ही आस-पास कोई भूख से, ठण्ड से, दवाइयों के अभाव में या छत के अभाव में मर जाये, तो ऐसा क्यों है? अगर हमारे खुद के भीतर ईश्वर नहीं है, तो फिर क्यों ना हम यह कह दें कि ईश्वर नहीं हैं! क्योंकि अगर वह हैं, तो या तो हमारे होने पर थू-थू है! और हम बिलकुल ही गलीच हैं या हममें मौजूद ऐसे लोगों की क्रूरता धन्य है, जो दिन-रात पत्र-पत्रिकाओं और अन्य मीडिया द्वारा चिल्लाये जाते रहने के बावजूद किसी बात पर नहीं पसीजती !? और हम भला पसीजें भी क्यों? क्योंकि वह तो जिस पत्थर के बने हुए हैं, उसी के कारण तो शोषण-अत्याचार की सहायता से तरह-तरह ठगई द्वारा यह सब करते हैं! धन कमाने के लिए हत्या तक भी करते-कराते हैं !! अगर फिर भी ईश्वर हैं, तो होंगे किसी की बला से!! आदमी में व्याप्त तरह-तरह की सद्भावनाओं अथवा दया-भावों के बावजूद अगर कुछ लोग इन सब बातों से अछूते रह कर सिर्फ-व-सिर्फ धन कमाने को ही अपना लक्ष्य बनाये धन खाते-धन पीते-धन पहनते-धन ओढ़ते आखिरकार मर जाते हैं और उनको जला कर…दफना कर…कब्रिस्तान-श्मशान में ऊंची-ऊंची आध्यात्मिक बातें करने के बावजूद हम घर लौट कर वही सब करने में व्यस्त हो जाते हैं, तो फिर भला ईश्वर कैसे हैं ?? हमारे होने के बावजूद यदि सब कुछ ऐसा है और ऐसा ही चलता रहने को है, तो फिर सच कहता हूं कि हम सब धरती-वासियों को एक साथ खड़े होकर जोर का चीत्कार लगाना चाहिए कि तो फिर कह दो कि ईश्वर नहीं हैं….नहीं हैं…..नहीं हैं….!!