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सोचिये ! सोचिये ! ईमानदारी से सोचिये

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राजीव थेपड़ा

Think! Think! Think honestly : एक अजीब और दोगली किसी किस्म की सोच है हम सबकी, क्योंकि मांसल तो सब कुछ ही है, हमारा होना ही मांसलता है। पहाड़ भी मांसल हैं, नदी भी मांसल है, आसमां भी मांसल है, फूल भी मांसल है, ब्रह्मांड की हर चीज, जो वजूद में है वह मांसल है !! मांसलता कतई बुरी नहीं है, दिक्कत तब होती है, जब आप मांसलता को बुरा मान लेते हो ; यहां तक कि उसे अपवित्र तक घोषित कर देते हो !!
स्थूल भी है, सूक्ष्म भी है !! …तो, सूक्ष्म को तो आप अच्छा मानते हो, मगर स्थूल को आप बुरा !! गोरे को आप अच्छा मानते हो, किन्तु काले को आप बुरा !!…तो, शुभ और अशुभ की आपकी जो अवधारणा है, खोट उसमें है ; वरना मांसल तो सब कुछ है, बल्कि किसी भी चीज को चाहना भी मांसलता ही है, वह चाहे फूल हो, चाहे समंदर हो, चाहे आपका सूट हो, चाहे कम्प्यूटर ही क्यूं न हो !!
लेकिन, नारी के शरीर को चाहने में बुराई मान ली जाती है, तो हमारी सोच का यह जो स्तर है, कमी इसी में है !! दरअसल, जो धार्मिक अवधारणाओं से संचालित होती है और पोषित होती है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक अवधारणाएं जो हैं, वे संसार में अब तक जो उच्च से उच्च श्रेणी के मनुष्य हो चुके, उन्होंने ही तय की हो !! बल्कि समय के साथ उनमें अनेकानेक क्षेपक जुड़ते चले गये हैं, जो समकालीन लोगों की तात्कालिक समझ थी !!
बहुत सारी चीजों में जो हमें बुराइयां दिखाई पड़ती है, बल्कि बुराइयां ही बुराइयां दिखाई पड़ती हैं, उसके पीछे के पूर्वाग्रह को अगर हम हटा दें, तो वही चीजें बिल्कुल तटस्थ लगने लगेंगी हमें !! नारी देह हो या पुरुष देह !! दोनों संसार की अन्य मांसल चीजों की तरह न्यूट्रल ही हैं, उनमें कामुकता और यौनिकता का समावेश, यह हमारी अवधारणा है, जो समय और स्थान के अनुसार ग़लत या सही है। एकदम से सही या ग़लत नहीं कही जा सकती !! जो भी हो, किन्तु मांसलता तो फिर भी रहेगी, क्योंकि मांसल होना हमारा स्वभाव है। यदि ऐसा नहीं होता, तो हम रूह के रूप में आसमान में उड़ रहे होते और रूहों की तरह ही हवा में ही हमारी बात हो रही होती !! ईश्वर को ऐसी क्या पड़ी थी, जो हमें जन्म देता, हमें सुन्दर और असुन्दर बनाता !! तरह-तरह के रूप रंग, तरह-तरह के विचार देता !! मुश्किल यह है कि हमने जो अवधारणाएं अपने तईं निर्मित और पोषित की हैं, उनके अनुकूल को स्वीकार और उनके प्रतिकूल को अस्वीकार करते हैं, तो जीवन में यह जो अस्वीकार का भाव है, समस्याएं इसी से पैदा होती हैं !!
नग्न चित्र-नंगी देह या स्त्री की देह, यह सब जो हमारे भीतर एक तरह के उन्माद को जन्म देते हैं। इसमें कहीं तो बहुत कुछ नैसर्गिक भी है और कहीं बहुत कुछ हमारी लम्पटता भी !!…और, हमारी इसी लम्पटता के कारण बहुत सारी नैसर्गिक चीजें भी खराब हो जाती हैं और जब चीजें खराब हो जाती हैं, तो हम एक समूची क्रिया-प्रक्रिया को ही खराब कहना शुरू कर देते हैं !! हम अपने भीतर नहीं उतरते !! हम अपने को जरा भी नहीं जानते !! हम अपनी मांसलता या सूक्ष्मता ; किसी चीज़ को नहीं पहचानते !! बल्कि, हमारी पिछली पीढ़ियों ने जो खांचे बनाये हैं, उन्हीं खातों के भीतर हम हर चीज पर विचार करते हैं !! जैसे कि पीछे जो हो चुका, वही सर्वश्रेष्ठ था और यह जो नया मनुष्य पैदा होता चला जाता है, इसमें सिर्फ और सिर्फ खराब ही खराब है !! वासना ही वासना है !! इस में सर्वश्रेष्ठ होने की कोई सम्भावना ही नहीं !!…और, दुर्भाग्यवश ऐसी सोच सिरे से ही गलत है… गलत है…और, गलत ही रहेगी !!

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