डाॅ. आकांक्षा चौधरी
आचार्य चतुरसेन के “वयं रक्षामः” की बात हो या बच्चन की “मधुशाला”…,सुरा, मधु, मदिरा या शराब के ज़िक्र के बिना मानव सभ्यता की बात पूरी नहीं होती। समाज का बड़ा तबका यहां तक कि ऊपर बैठे देव, सुर, असुर गण भी सुरा, मदिरापान से अछूते नहीं। देवी सूक्तम् पढ़ने पर पता चलता है कि अचिंत्य रमणा जगदम्बा भी जब असुरों को रौंदने की तैयारी कर रही होती हैं, तो मधुरस के पीने का ज़िक्र आता है।
यानी बुद्धि से परे जब भी शक्ति की बात आती है, तो मद्यपान ज़रूरी हो जाता है। महादेव की मद्य तो नहीं, लेकिन धतूरे-भांग के नशे के साथ चर्चा करते हैं। इन सभी उदाहरणों का हवाला देकर लोग आधुनिक युग में मद्यपान करने को उचित करार देते हैं।
जहां भी नज़र घुमायें, वहीं आपको किसी तरह के शराबी से मुलाक़ात हो जायेगी। रात के सात आठ बजे काम से लौटते समय सामलौंग, नामकुम के इलाक़ों में “हे गुइया..” पर नाचते महान नर्तक बेवड़े मिलेंगे। लालपुर या मोरहाबादी की तरफ़ से गुज़रें, तो हाई स्टेट्स के टाकोज, नाचोज के साथ सिगार का कश भरते हुए बेवड़े नज़र आते हैं, जो अपनी महंगी कारों के शीशे नीचे करके बीयर की बोतलें हवा में लहराते हैं। इनकी गर्लफ़्रेंडों को हैंग ऑन और हैंगओवर होता है।
इन दो चरमपंथी बेवड़े समूहों के अलावा कुछ छोटे-मोटे मिडिल क्लास फ़ैमिली बेवड़े होते हैं, जो रात को अपनी अलमारी से एक पौआ निकालते हैं। गलती से कोई बच्चा कमरे में घुस जाये, तो मां कान खींच कर बाहर निकालती है, कहती है – “पापा ज़रूरी काम कर रहे हैं!” यदि कभी देर रात कहीं से आयें, तो पायेंगे कि नाली में लुढ़के हुए कई बेवड़े हैं। इनका अलग ही टशन है। ये किसी बेवफ़ा का ग़म भुलाते हुए पीते-पीते रोज के पियांक हो गये या फिर नौकरी छूटने का ग़म हावी होने लगता है।
कुछ बेवड़े खानदानी भी होते हैं। बाप दादा भी पीते थे, इसलिए ये भी पीते हैं। पीते-पीते कभी-कभी सम्पत्ति भी बिक जाती है, मां के गहने और पुश्तैनी मकान भी गिरवी रख कर, क़र्ज़ लेकर भी पीते हैं ऐसे बेवड़े।
बड़े पैमाने पर वेरायटी ऑफ बेवड़े मिलते हैं और मिलते ही रहेंगे। देखिए और एंजॉय कीजिए।