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सत्ता में कोई भी आये, होगा क्या…? यदि हम ही ना बदलें !!

सत्ता में कोई भी आये, होगा क्या…? यदि हम ही ना बदलें !!

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राजीव थेपड़ा

Whoever comes to power, what will happen…? If we don’t change!! : कहां से शुरू करूं, यह समझ नहीं आ रहा !! जब से होश सम्भाला है, अपनी चारों तरफ फैली तरह-तरह की गंदगी मन को जहर करती रही है, लेकिन कभी किसी को कुछ कह नहीं पाता ! हर सुबह अखबार पढ़ते हुए, हर रात टीवी पर न्यूज चैनलों को देखते हुए, जो कुछ सामने आता है, वह मुझे पिछले तीस 32 वर्षों से सालता रहा है।
हम संवेदनहीन हो गये हैं। किसी भी संवेदनशील वक्ता या लेखक द्वारा यह कह देना बेहद अर्थवान होता है। हालांकि, हम में से हर कोई बिलकुल से संवेदनहीन कतई नहीं होता। हां, यह जरूर है कि हमारे सामने बहुत-सी लोमहर्षक घटनाएं घटती हैं, लेकिन हम उन्हें देखते रह जाते हैं, मगर चाह कर भी कुछ कर नहीं पाते !!
इस बहुत बड़े सारे संसार में हर घटना की जगह पर हम मौजूद नहीं होते और जो मौजूद होते हैं, उनकी लापरवाही या उनकी परिस्थितियों से अनभिज्ञता उस घटना को होने देती है। साथ ही, यह कहना ज़्यादा उचित जान पड़ता है कि ज्यादातर मौकों पर हमारी कायरता ही उन घटनाओं को होने देती है !!
लेकिन, प्रश्न यह है कि जब चारों तरफ भयंकर स्वार्थ, भयंकर लंपटता, भयंकर धूर्तता, फैली हुई हो, तब ऐसे में कौन-कौन सा व्यक्ति किस-किस बात के लिए किस-किस जगह पर जाकर लड़ेगा ?? …और, सबसे बड़ी बात यह है कि किसी का इन परिस्थितियों के एवज में नहीं लड़ पाना या लड़ने को उद्यत न होना, क्या एक किस्म की संवेदनहीनता है ??…तो मैं कहूंगा नहीं, क्योंकि मैंने देखा है कि पिछले तीस 40 वर्षों से (अब जबकि 54 का हो चुका हूं मैं ) तो पिछले 40 वर्षों से राजनीतिक भ्रष्टाचार के अलावा समाज में फैली तरह-तरह की गंदगी सदा मुझ जैसे लोगों को भयंकर रूप से कचोटती रही है, बल्कि सारा-सारा दिन ऐसा भी होता है या कभी-कभी कोई घटना इस तरह मन में छा जाती है कि मन उबाल-सा मारता रहता है, लेकिन दिक्कत यह है कि गृहस्थ आश्रम को जीते हुए और तरह-तरह की अपनी ही परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं से लड़ते हुए न तो इतनी ऊर्जा बचती है और न इतना वक्त मिलता है कि हम ऐसी चीजों से जाकर दो-चार हो सकें। इसका मतलब यह नहीं कि हमारा मन ही नहीं उबलता, बल्कि इसका मतलब यह भी है कि हमारी संवेदना धज्जी-धज्जी बिखरती रहती है और हम खुद को तड़पता हुआ देखते हैं !!
सच तो यह है कि जब कतिपय बड़े लोग यह लिखते हैं कि समाज ऐसा हो गया है, वैसा हो गया है, तो उनमें से कोई खुद भी सड़क पर आकर उसके खिलाफ लड़ता नहीं रहा होता। अपितु, वह स्वयं भी दरअसल सिर्फ लिख ही रहा होता है, तो जो यह सब लिखते हैं, उनमें से कोई भी खुद भी सड़क पर आकर लड़ते हुए कभी नहीं पाये जाते, बल्कि मैं उकसाता हूं कि सिर्फ चार दिन या हफ़्ते भर ही अपनी इस धधकती ज्वाला को वह सड़क पर लड़ने के रूप में प्रकट करके देखें, तो सम्भव है कि वह खुद को भी अंततः सड़क पर ही पायेंगे, क्योंकि उनकी ही नौकरी जा चुकी होगी। इसी तरह से ऐसी ही धधकती ज्वाला लिये कोई मनुष्य या बहुत सारे मनुष्य किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे होंगे, कोई न जाने कितने कर्ज में होगा, जिसका व्यापार डूब गया होगा !! उसके सॉफ्ट नेचर की वजह से उधारी मर गयी होगी और बैंक भी उसके ऊपर चढ़ा हुआ होगा और उसके खुद के पांच-सात सदस्यों का परिवार होगा, जिनके पेट के लिए वह सदा ही अपनी परिस्थितियों से जूझ रहा होगा !! बल्कि उसको काम करने के दिन के 18 घंटे भी कम पड़ते होंगे !!……कि उसका रोज का खर्च हजार रुपया होगा और वह बहुत मुश्किल से वह इस हजार रुपया को भी किसी ही तरह कमा पाता होगा !! …तो, ऐसे में वह अपना कार्य स्थल छोड़ कर किन लड़ाइयों में जाये ??
यह ठीक है कि यह निजतामूलक बातें हैं व्यक्तिनिष्ठता है, लेकिन समाज में एक-एक व्यक्ति अपनी-अपनी जिम्मेदारियों के लिए, अपने परिवार और उनके खर्चों के लिए जीता हुआ, अपने सामने आनेवाली इन सब तरह की परिस्थितियों से भी दो चार होता है। यह जो परिस्थितियां आप बता रहे हैं !! लेकिन क्या यह सम्भव है कि हर चीज के खिलाफ आदमी जा-जा कर सड़क पर उतर कर लड़ाई शुरू कर दें ?? भ्रष्टाचार जितना ऊपर से दिखता है, गन्दगी जितना ऊपर से दिखती है, अखबार एवं चैनलजितना कुछ उजागर करते हैं, उससे कई-कई गुना ज्यादा है !! यहां तक कि तमाम संवेदनशील से संवेदनशील पत्रकारों तक को नहीं पता कि यह गंदगी कहां तक घुसी हुई है, कितने गहरे तक गयी हुई है !!
किसी बाबा का, किसी नेता का, किसी अफसर का, जब भी कुछ खुलासा होता है, तो ऊपरी तौर पर सारी बातें दिखाई जाती हैं और देख भी ली जाती हैं, लेकिन भीतरी तौर पर यदि देखें, तो उनके उस कतिपय “शासन” के दौरान उनके द्वारा किये गये तरह-तरह की कृत्यों की संख्याएं, उनसे प्रभावित हुए लोग, उन कृत्यों द्वारा व्यतीत किया जाता, उनका रोजमर्रा का जीवन, उन सबके बीच उनके खुद के अनुयाई या रिश्तेदार या खुद के परिवार के सदस्य के समाज के सदस्यों के साथ तरह-तरह के घात-प्रतिघात, जिन्हें आप दरअसल इमेजिंग भी नहीं कर सकते कि 10 साल, 15 साल, 20 साल या 25 साल, जो अफसर, जो नेता, जो बाबा, जो वकील, जो इंजीनियर, जो ठेकेदार, जो डॉक्टर या ऐसा कोई व्यक्ति, जो बुरी तरह सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाने की मशीन बना हुआ है, उसने अपने उस जीवनकाल में जो-जो कुछ किया है, उनसे प्रभावित व्यक्ति भी लाखों हैं, जिन्होंने इन व्यक्तियों के उन घटिया कृत्यों के एवज में अपना न जाने क्या-क्या कुछ खोया है, क्या इसकी पड़ताल कभी की जा सकती है ??
किसी गोरखपुर के किसी अस्पताल में 70 बच्चों की मौत हो या रांची के रिम्स में 159 बच्चों की मौत, तब अखबार भी जागता है और अखबार में उजागर तथ्यों के साथ ही प्रशासन की नींद भी खुलती है, किन्तु क्या सचमुच नींद खुल जाती है, क्या सचमुच इसे जागना कहा जा सकता है ?? मुझे तो यह हरगिज नहीं लगता, क्योंकि जो आज हुआ है, वह तो 70 वर्षों से हो रहा है, हर भ्रष्टाचार 70 वर्षों से घट रहा है, हर गंदगी 70 वर्षों से फैली हुई है और बदला हुआ वह नेतृत्व, जो अपने सुशासन की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाता, वह खुद भी इस गंदगी से अलहदा नहीं है !! बेशक, वह कुछ भी कह ले, मगर अपने लोगों के प्रति पारसियलिटी उसमें भी है और दरअसल यही पारसियलिटी गंदगी को जन्म देती है !!
जब हम अपने परिवार के किसी गलत सदस्य को प्रश्रय देते हैं और उससे लाभ कमाते हैं !! जब हम अपने मोहल्ले के किसी भी गलत तत्त्व को प्रश्रय देते हैं और उससे लाभ कमाते हैं !! जब हम अपने क्षेत्र के किसी भी गलत व्यक्ति को विधायक या सांसद बनाते हैं और उससे लाभ लेते हैं, तो स्वार्थों का यह जो हमारा सम्बन्ध है, भ्रष्टाचार का ताना-बाना इसी सबके बीच गुना और बुना जाता है !
…तो, भ्रष्टाचार पर रोने के बजाय बात सिर्फ और सिर्फ चरित्र की होनी चाहिए, भ्रष्टाचार की बुनियादी इकाई इस देश के एक-एक व्यक्ति का चरित्र है। मगर, साथ ही व्यक्ति का चरित्र इस ढंग से बुना जा रहा है कि ज्यादा से ज्यादा पैसेवाले व्यक्ति को समाज में किसी खास के रूप में प्रतिनिधित्व मिल रहा है और कम पैसेवाले व्यक्ति को कोई पूछता भी नहीं !! …तो, लक्ष्मी की पूजा ने हर व्यक्ति को जैसे एक दुर्दांत अपराधी बनने को विवश कर दिया है !!
…तो फिर जो लोग सरल हैं, भोले हैं और कम से कम स्वार्थवाले हैं, वे दरअसल जीवन के किसी भी क्षेत्र में उस तौर पर असफल हैं, जिस तौर पर चीजों को हम प्रश्रय देते हैं, उनका भोलापन, उनकी सरलता और उनकी ईमानदारी उनके रोजमर्रा के जीवन को और भी कठिनतम बनाती है तथा उनकी समस्त परिस्थितियों को दुर्दम्य-दुघर्ष बनाये रखती है !! ऐसे में क्या आप समझते हैं कि ऐसे लोग सड़क पर उतर कर अपने बाल-बच्चों की परवरिश करने के बजाय या अपने परिवार को मंझधार में छोड़ कर उन चीजों के लिए लड़ेंगे, जो दरअसल उनको सपने में भी बदलती भी नहीं दिखती !!??
एक आम से आम इंसान को भी पता है कि यह सड़ांध कितनी भयानक है, सामने से हमारे सामने से गुजरते वीआईपी गाड़ियों के काफिले, हमारे समय में घट रही चकाचौंध और भव्यता, हम सबके ही बीच दिया जा रहा कतिपय ताकतवर लोगों को अपनी और भी ताकत का सम्बल !! क्या इस सबके बावजूद कुछ भी बदल सकता है ?? हालांकि, यह कहना बेहद निराशाजनक होगा कि नहीं कुछ नहीं बदल सकता, लेकिन यदि हम मानते हैं कि यह सब बदल सकता है, तो फिर यह पड़ताल अपने भीतर ही करनी होगी कि यह सब बदलेगा कैसे ; क्योंकि बदलना तो सर्वप्रथम खुद के चरित्र को होगा और सच्चाई यह है कि व्यक्ति के तौर पर जो जितना निष्कपट है, वह उतना ही संघर्षमय परिस्थितियों में जी रहा है, जो जितना ही श्रेष्ठ है, वह उतना ही हाशिये पर पटक दिया जा रहा है !!
आप खुद सोच कर देखिए ना कि आपके अखबारों और चैनलों में निष्कपट और अच्छे लोगों की, यहां तक कि अच्छा लिखनेवालों की और अच्छी पत्रकारिता करनेवालों की स्थिति क्या है। फिर कीजिएगा लड़ने की बात !! और जरा आप खुद लड़ कर तो दिखाइए !! अपने संस्थान में ही हो रही इस कलुषता को खत्म करके तो दिखाइए, तब हम जानें कि आप कितने बड़े तोपची हैं !! कह देना बहुत आसान होता है, लेकिन अपने घर में भी अपना ही कोई भाई बंधु अगर लालची है, स्वार्थी है, कपटी है, ठग है, धूर्त है, मक्कार है, तो उसको तक राई रत्ती भर भी बदलना मुश्किल होता है, बल्कि असम्भव होता है ; तो संस्थान की किसी बुराई को दूर करना तो और भी बड़ा कठिनतम और असाध्य काम है !!
…तो, अगर हम यह सोचते हैं कि हमारे देश को बदलना चाहिए, तो निश्चित तौर पर हमें खुद को बदलना चाहिए !! देश के प्रति महानता का भाव सिर्फ गानों में भर में हो, सिर्फ जुमलों भर में हो, उससे देश नहीं बदलता !! देश बदलता है खुद के बेहतर और स्वच्छ रहने से !! व्यक्ति जब बेहतर और स्वच्छ हो, तो किसी स्वच्छता अभियान की जरूरत ही नहीं पड़ती और ना ही किसी भ्रष्टाचार मिटाओ अभियान की जरूरत पड़ती है और ना कोई गरीबी भगाओ अभियान की जरूरत होती है !! यदि हम निष्कपट हैं, यदि हम ईमानदार हैं, यदि हम कम से कम स्वार्थी हैं, तो सबसे पहले तो अपना खुद का घर बदलेगा, उसके बाद मोहल्ला बदलेगा, उसके बाद शहर बदलेगा, उसके बाद राज्य बदलेगा और जब सब कुछ बदलेगा, तो निसंदेह अंततः देश भी बदलेगा, बल्कि उसे बदलना ही होगा !!
ऊपरी तौर पर लड़ाई लड़ने की बात पर कुछ नहीं बदलनेवाला !! सच्चे अर्थों में तो मैं यह कहना चाहता हूं कि देश के प्रत्येक व्यक्ति की सबसे पहली जरूरत अध्यात्म है। इस अध्यात्मिक कमी की वजह से वह चकाचौंध की तरफ भागता है !!…और फिर, वह कुछ भी बने, डॉक्टर बने, इंजीनियर बने, नेता बने, अफसर बने, बाबा बने, नक्सली बने, आतंकवादी बने !! माने कुछ भी बने, लेकिन उसको सिर्फ और सिर्फ अपनी खाली तिजोरी को और भरने, और भरने, और भरने की ही अभीप्सा रहेगी और जब तक हम चकाचौंध और भव्यता को पूजेंगे !! उनको समाचारों और चैनलों की हेडलाइन बनायेंगे, तब तक ऐसा ही होता रहेगा !! आप भले ही किसी अखबार के एडिटर होकर चिल्लाते रहें कि हम संवेदनहीन हो गये हैं !! हम और भी संवेदनहीन होते जायेंगे, क्योंकि हमारे इस प्रकार के कलुषित चरित्र के एवज में हमारी यही नियति तारी है !!

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