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आखिर क्यों लगता है कि सभ्य हैं हम ?

आखिर क्यों लगता है कि सभ्य हैं हम ?

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राजीव थेपड़ा

बड़ी-बड़ी, सुन्दर-सुन्दर आसमान छूती हुई बिल्डिंगें बनाते हुए और उन्हें स्वर्गलोक का-सा आभास देते हुए तरह-तरह की भव्य अटालिकाओं से पटी हुईं सोसाइटियां बनाते हुए और उनकी सुन्दरता के रूप में थोड़ी-बहुत खुलीं, किन्तु कंक्रीट की जगह छोड़ते हुए और थोड़ी-सी और सुन्दरता भरने के लिए उनमें स्विमिंग पूल बनाते हुए दर्प से भर जाते हैं, हम यानी बड़े गर्वित होते हैं हम !! क्योंकि, भव्यता और चकाचौंध हमें बेहद भाती है और सच तो यह है कि हम उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं और ऐसा करते हुए हम अक्सर पाये भी जाते हैं ! बेशक, हम अपने खुद के ऐसा करते हुए होने में तनिक भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। लेकिन, यही बात दूसरे करें, तो उनके लिए हमारी निंदनीय वंदनाएं शुरू हो जाती हैं ! आदमी की आवश्यकताओं के लिए चारों तरफ कंक्रीटों का एक ऐसा संजाल भयावह रूप से निर्मित होता जा रहा है, जिनमें सभ्यता का कंकाल दिखाई देता है ! बिल्डिंगों से लेकर सड़कों तथा तरह-तरह के कारखानों के रूप में लगातार बढ़ता चला जा रहा यह संजाल हमारी चारों तरफ की हरीतिमा को बुरी तरह लीलता जा रहा है और हम खुश हो रहे हैं कि हम सभ्यता की मंजिल को पाने के एक पायदान और आगे बढ़ गये ! 

उन तमाम की तमाम सोसाइटियों में पानी के स्रोत के रूप में गहरी से गहरी बोरवेल करते हुए, धरती के अंतर को अत्यन्त भीतर तक छलनी करते हुए, अपने लिए 25 तल्ले से 50 तल्ले और 100 तल्ले तक की ऊंचाइयों पर मशीनों से पानी पहुंचाते हुए और उनका बहुत ही लापरवाही पूर्वक बेतरह इस्तेमाल करते हुए हमें लगता है कि कितने सभ्य हो गये हैं हम !! टाइलों से लकदक बड़े-बड़े आलीशान बाथरूम के अंदर पानी से भरे हुए बाथटब में बैठे हुए या झरनों (शावर) के नीचे नहाते हुए हमें लगता है कि कितने साधन सम्पन्न हो गये हैं हम !! यह भी बहुत अजीब बात है कि पेड़ हमें बड़े अच्छे लगते हैं ! लेकिन, पेड़ हम उगाते नहीं ! बल्कि पेड़ों को देखने के लिए, पिकनिक मनाने जंगलों में जाते हैं और मजा यह कि उन्हीं जंगलों से अपने आलीशान घरों के फर्नीचर को बनाने के लिए उन पेड़ों को कटवाते हैं और तब गृह प्रवेश करते हुए अपने तमाम नाते रिश्तेदारों और दोस्तों को बुला कर उन आलीशान घरों और फर्नीचरों को दिखा कर दर्प से भरे कितने ही ऊंचे समझते हैं हम स्वयं को और देखते ही देखते 10-20 साल बाद उन्हीं जंगलों की जगह पर एक भयावह उजाड़ दिखाई देता है, जहां कभी हम या हममें से कोई उन पेड़ों के मध्य पिकनिक मनाने गये थे और खूब सारी खुशियां लेकर लौटे थे ! हमें यह भी तो नहीं अहसास कि अगली बार हम वह खुशियां कब और कहां से लेकर लौटेंगे ? क्योंकि, जब तक कहीं ना कहीं जंगल है, हम वहां पिकनिक मनाने जाते रह सकते हैं !! किन्तु धरती के प्रति नदारद हो चुकी हमारी फिक्र ने धरती को कितने बड़े संकट में डाल दिया है, यह शायद हम अब तक तो नहीं जानते ! चेतना (चेत जाना) तो और भी दूर की बात है !!  किन्तु, सच जानिए, हमारी सोच बेहद बीहड़ हैं बीहड़ ! हमें कभी लगता ही नहीं कि हमारी सोच के पीछे भी कोई कमी भी हो सकती है ! बल्कि, मेरी दृष्टि में तो मैं उसे पाप ही कहता हूं ! क्योंकि, धरती के अंतर को बहुत गहरे तक छलनी करते हुए सिर्फ और सिर्फ अपनी आवश्यकताओं के बारे में सोचते हुए हमें कभी इस बात का एहसास भी नहीं होता है कि जिस धरती पर हम जी रहे हैं, उस धरती को भी जीने की उतनी ही अभीप्सा होती होगी और वह भी हमारी ही तरह जीवंत है और उसको भी सांस लेने के लिए कुछ जगह चाहिए होती होगी ! यानी धरती को भी, यानी हमारी अपनी धरती को भी कुछ स्पेस चाहिए और धरती का स्पेस क्या हो सकता है ? धरती का स्पेस मेरी दृष्टि में बस यही हो सकता है कि हम जितना कुछ उससे निकाल रहे हैं, अपनी क्षमता अनुसार उसके बदले उसके अंदर हमें और ज्यादा पाने के लिए कुछ प्रविष्ट भी करते रहना चाहिए और वह प्रविष्टि क्या हो सकती है? इस बारे में शायद ही हमने कभी सोचा होगा !!

बड़ी-बड़ी सोसाइटियां बनाते हुए, स्विमिंग पूल में तैरते हुए कभी हमने यह नहीं सोचा है कि उसके भीतर एक तालाब भी होना चाहिए, जो हमारी बिल्डिंगों से छन कर आते हुए पानी से लबालब भरा रहे ! हमने कभी नहीं सोचा कि यह जो बड़ी-बड़ी बिल्डिंग हम बना रहे हैं, उनमें थोड़ी-सी रेन हार्वेस्टिंग की भी जगह हो कि धरती का पानी वापस धरती में प्रविष्ट होकर धरती को फिर से रिचार्ज करता रहे ! हमने कभी नहीं सोचा है कि इन सोसाइटियों की खुली जगहों में कंक्रीट अथवा टाइलों से भरने के बजाय कुछ फलदार वृक्ष ही क्यों न लगा दें हम कि बच्चे वहां पर आकर उन पेड़ों को पहचानें और पेड़ों की प्रजातियों के नामों को समझें ! उनसे क्या मिलता है, उनके क्या-क्या खास-खास गुण हैं, और उनसे जुड़ी हुई समस्त बातों को समझें और अपने अंतस तक उसे ग्रहण करें, उनको जानें। उनमें चहचहाते हुए पंछियों से बातचीत करें, उनसे दोस्ती बढ़ायें और कुल मिला कर धरती को हरा-भरा रखते हुए, अपनी सोसाइटी को हरा-भरा रखते हुए प्रकृति के उन तमाम आयामों से वापस जुड़ने की चेष्टा करें, जिनसे हम जुड़ाव अब बिल्कुल भूल चुके हैं और जिस अजुड़ाव के कारण वे सभी पंछी हमारे बीच से धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं, जो हमारे गांव/घर की मुंडेर पर आकर बोला करते थे, हमसे बतियाया करते थे !

अपने स्वार्थों से अधिक की धरती की जीवंतता को अपने भीतर महसूस करते हुए, उस जीवंतता को और भी बढ़ाने का प्रयास करके करते हुए, अंततः हम अपने ही जीवन को स्वर्ग सरीखा बनायें, ऐसा विचार हमारे भीतर कभी भी क्यों नहीं आता? यह भी सदा से एक आश्चर्य व शोध का विषय है ! पानी के लिए लड़ रहे हैं, आपस में पानी की चर्चा कर रहे हैं, दूर-दराज के अखबारों तक हमारी सीखें सुनाई पड़ रही हैं ! लेकिन, चूंकि वे चीखें उन लोगों की हैं, जो हमारी सोसाइटियों के लोगों की नहीं हैं, तो हमें क्या फर्क पड़ता है कि पानी पृथ्वी के किस रसातल में जा पहुंचा है, क्योंकि हम तो मशीनों से पानी 50 तल्ले और 100 से ऊपर तक की बिल्डिंगों तक खींच पाने में सक्षम हैं, और सम्भवत: आगे हम पाताल से भी पानी खींच लायेंगे ! …तो, इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि हमारे आसपास की छोटी और तंग बस्तियों में पानी की क्या हालत है और लोग किस प्रकार पानी के लिए कड़ी धूप में लाइन लगा-लगा कर पसीना बहा कर भी किसी तरह अपने जीवन-यापन के लिए दो घड़े या दो बाल्टी पानी ले जा रहे हैं ! 

एक सोसाइटी से दूसरी सोसाइटी तक दिख रहे इन तमाम मंज़रों का यह आकलन बार-बार हमारे असभ्य होने को ही इंगित करता है ! …और, मजा यह कि हम अपनी इसी असभ्यता को ही सभ्यता मान कर इस पर न केवल गर्वित होते हैं ! लांछित होने का तो सवाल ही नहीं है ! बल्कि हम तो इस पर भी गर्वित होते हैं ! और तो और, हमारे ही बीच रहते हुए कुछ ऐसे लोग, जो हमारे द्वारा इस व्यर्थ बहाये जाते पानी के अथवा उसके दुरुपयोग के बारे में कुछ कहते भी हैं या चिन्ता जताते हैं, तो हम उनको पागल समझने लगते हैं ! यहां तक कि उनको भी लांछित तक कर देते हैं ! ऐसे में एक बहुत बड़ा प्रश्न है, क्या सचमुच सही कर रहे हैं हम ? इस बात पर मुझे वाकई संशय है !!

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