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शक्ति है स्त्री ! बस…कि तुम समझते ही नहीं !!

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राजीव थेपड़ा

Woman is power! It’s just that you don’t understand!! : स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का रसातल में चला जाना आदमी के इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है, किन्तु मुश्किल यह है कि आदमी ने अब तक इस ओर देखना भी शुरू नहीं किया है। पिछले हज़ारों साल से आदमी ने अपने जीने के लिए सिर्फ शक्ति की भाषा को ही पोसा है। नतीजा, यह हुआ है कि आदमी की जात अब केवल और केवल शक्ति की भाषा ही सोचती और समझती है !! इसलिए आदमी के सारे रास्ते शक्ति प्राप्त करने की दिशा में ही दौड़ते दिखाई पड़ते हैं और शक्तिहीन व्यक्ति एक बेबस-असहाय जीव ही प्रतीत होता है !!

    प्रेम…इस शब्द का तो हम वैसे भी स्थूल अर्थ ही जानते हैं। मगर, वे भी समूचा नहीं जानते हम, आध्यात्मिक अर्थों की बात तो जाने ही दें, तो भी प्रेम का स्थूल अर्थ भी एक-दूसरे के साथ साझा करने के रूप में है। साझा का अर्थ है अपने सहजीवन के भौतिक और मानसिक, समस्त उपादानों को एक-दूसरे के साथ साझा करना !

    प्रकृति में ईश्वर ने शक्ति और प्रेम का एक जोड़ा निर्मित किया। शक्ति ब्रहमांड की हर चीज़ में ऊर्जा के विभिन्न रूपों में बहती है और प्रेम सजीव जगत के हर उपादान को वंश-वृद्धि एवं सामंजस्य तथा अन्य चीजों को इस प्रकार सुचारु रूप से चलाता रहता है, जिस प्रकार ऊर्जा अपने विभिन्न रूपों में हर चीज़ को पैदा कर रही और उसे बढ़ा रही है, उसी प्रकार प्रेम भी अपने अजस्त्र स्त्रोतों के रूप में हर सजीव में विद्यमान है। किन्तु साथ ही, यह भी है कि प्रेम और ऊर्जा दोनों ही का ब्रहमांड में सामंजस्य है, ना तो कुछ भी अकारण है और ना ही बेकाबू या उच्चश्रंखल !!

    किन्तु, आदमी की जीवन के प्रति नासमझी ने शक्ति को ही जीवन का पर्याय मान लिया और अपने समूचे इतिहास में वह राज्य-देश-महादेश जीतता रहा और दिग्विजय की कामना पाले रहा और अपनी इस महत्त्वकांक्षा को अपने आम नागरिकों के दिलों में भी गर्व के रूप में भरता रहा और इस तरह से आदमी का इतिहास विजेताओं और विजितों का इतिहास बन कर रह गया !!

किन्तु, यह तो शासकों के जीवन की बात थी। आदमी ने अपने आम जीवन को भी महज शक्ति-प्राप्ति का एक पर्याय और उस शक्ति का वीभत्स प्रदर्शन बना डाला !!…और, उसके छोटे-छोटे कार्यों से लेकर बड़े-से-बड़े कार्यों में भी यही परिलक्षित होता है !! आदमी द्वारा तरह-तरह के वर्गों का निर्माण भले ही किन्हीं सहूलियतों के लिए किया गया होगा, किन्तु कालान्तर में यही वर्ग आदमी की सबसे भयानक गलती साबित हुए, क्यूंकि ये आदमी के पौरुष के प्रतीक बन गये और उनका रक्तरंजित झगड़ा एक शाश्वत दैनंदिन कार्य हो गया, जो उनके टट्टी-पेशाब से भी ज्यादा आवश्यक था और सबसे बड़ी वीभत्स बात तो यह हुई कि इस समूचे इतिहास में हर शक्ति प्रियता और शक्तिप्रदर्शन का सबसे बड़ी शिकार सदा स्त्री ही सबसे ज्यादा बनी !! शक्ति के इन सभी युगों में स्त्री की कोमलता और प्रेम ही उसकी कमजोरी बन गये…..हरदम त्रासदी और हैवानियत के शिकार होते रहने के कारण अंतत: यह आधुनिक युग आया जब स्त्री की खुद की कामना भी शक्ति ही हो गयी और वह भी शक्ति पाने के प्रयासों में संलग्न हो गयी और इसका नतीजा दोनों में अवश्यसम्भावी टकराव के रूप में आया, जो आज कदम-कदम पर व्याप्त है। अविश्वास और घृणा की खाई क्रमश: चौड़ी होती जा रही है और स्त्री और पुरुष ; दोनों को ही रास्ता नहीं सूझ रहा !!क्योंकि, दोनों ही टकराव की भाषा में सोच रहे हैं !!

हालांकि, ऐसा नहीं है कि पुरुष प्रेम नहीं चाहता, मगर चूंकि उसके जीवन में प्रेम जीवन को साझा करने का मूल्य नहीं, अपितु महज आमोद-प्रमोद का साधन भर है, इसलिए प्रेम उसके लिए हमेशा दोराहे जैसी चीज़ बन कर रह गया। ऐसे में पुरुष के खुद के भीतर भी एक शाश्वत टकराव का भाव पैदा हो गया, क्योकि उनका अंतस तो चाहता है प्रेम, मगर वे खुद चाहते हैं शक्ति…..उधर, स्त्री भी प्रेमरूपा होने के बावजूद शक्ति की होड़ में जा पड़ी है, क्यूंकि पुरुष के मीडिया ने प्रेम को दीन-हीन और शक्ति को महत्त्व प्रदान किया हुआ है और हर तरफ शक्ति को ही पूजा जा रहा है, तो स्त्री भी भला क्यों कम रहे !!

    किन्तु, सच तो यह है कि शक्ति अपने-आप में बेकाबू-अनियंत्रित चीज़ है…और, प्रेम उसका नियामक और विवेक !!….और, आदमी को दरअसल अब यह तय करना है कि उसे प्रेम और शक्ति का साझा सहजीवन चाहिए या कि एक अंधी शक्ति, जिसके सहारे वह धरती का विनाश कर सके !!

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