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हमारा राजनीतिक नेतृत्व कब योग्यता को उचित स्थान प्रदान करेगा ??

हमारा राजनीतिक नेतृत्व कब योग्यता को उचित स्थान प्रदान करेगा ??

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राजीव थेपड़ा

समय बदल रहा है, किन्तु लोग नहीं बदलते। सामान्य लोग नहीं बदले, यह तो फिर भी स्वाभाविक है। यह चलता है, क्योंकि सामान्य लोगों को बदलने में बहुत समय लगता है और उन्हें बदलने के लिए महापुरुषों को पूरी तैयारी करनी पड़ती है। ऐसे कर्म करने पड़ते हैं। फिर भी जिसका अनुकरण करने में भी किसी भी समाज का एक साधारण मनुष्य भी फूंक-फूंक कर अपने कदम बढ़ाता है। हजारों साल से पोषित की जाती उसकी जड़ सोच को उखाड़ने के लिए न जाने कितने यत्न करने पड़ते हैं। तब जाकर वह एक कदम बढ़ाता है। किन्तु यह तो हुई साधारण जनमानस की बात। लेकिन, दूसरी ओर एक ऐसा वर्ग भी है, जो पर्याप्त पढ़ा-लिखा है। जिसने यह दुनिया देखी है और जो इस साधारण समाज का प्रतिनिधित्व भी करता है। वह वर्ग है राजनेताओं का। जो कहता, तो अपने आप को साधारण लोगों का प्रतिनिधि है ! किन्तु साधारण लोगों के प्रतिनिधित्व के नाम पर केवल और केवल अपने लिए जीता है ! अपने लिए संसाधन इकट्ठा करता है ! अपने लिए अकूत सम्पत्ति अर्जित करता है ! यहां तक कि जनता के हितार्थ लागू की गयीं योजनाओं के धन की भी आपस में बंदरबांट कर लेता है!

लेकिन, वह कहता है कि वह आम जनता के हित के लिए कार्य कर रहा है! किन्तु उसकी हर बात में झूठ होता है ! क्योंकि, आज की राजनीति में जनता का कोई स्थान नहीं है। यदि हमारे देश के अधिकांश नेताओं की कमाई और समापत्ति की जांच की जाये, तो नेता बनने से पहले के उनकी कमाई  और सम्पत्ति के स्तर के अनुपात में उनके नेता बनने के कुछ ही सालों पश्चात उस कमाई में लाखों और करोड़ों रुपये का अथवा हजारों प्रतिशत का अंतर आ जाता है ! इसी से यह साबित होता है कि हमारे देश के झूठे राजनीतिक, देश का प्रतिनिधित्व करने के नाम पर अपने आप को किस मुकाम तक ले जाते हैं! ऐसा ही एक विषय है आरक्षण ! इसके विषय में इस देश के प्रतिद्वंद्वी दल के सबसे प्रमुख राजनेता, जो इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री के सम्बन्धी भी हैं, जो पिछले कई दिनों से जातिगत आरक्षण और जातिगत जनसंख्या की मांग करते आये हैं। जिन्होंने हाल ही में अपने सत्ता में आने के पश्चात आरक्षण की सीमा 50% को तोड़ देने की वकालत की है। जातिगत जनसंख्या की मांग करते-करते जातिगत आरक्षण को 50% के पार ले जाने के लिए तत्पर ऐसे नेता इस देश को कहां ले जाना चाहते हैं, यह तो पता नहीं ! किन्तु, सत्ता पाने के लिए वे लोग देश को पतन की किस राह पर धकेल देना चाहते हैं, यह कुछ विवेकशील लोग ही समझ सकते हैं !

किन्तु, राजनीति ही क्यों, आम जनमानस में भी यही बात तो चलती है कि हर समाज, हर संगठन, हर व्यक्ति अपने-अपने हित-लाभ, अपने स्वार्थ की संकुचित सीमाओं से बंधा हुआ है और उसे अपने स्वार्थ के सिवा कुछ दिखाई भी तो नहीं देता ! योग्यता पर आरक्षण को प्राथमिकता देने के कदम ने इस देश को पहले भी बहुत हानि पहुंचायी है। यद्यपि, इन पंक्तियों का लेखक भी ऐसे ही एक वंचित समुदाय से आता है और यह हरगिज नहीं चाहता कि कमजोरों और पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने का अवसर न मिले। किन्तु, ये अवसर उनकी योग्यताओं को निखारने, उनकी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए और उनकी उत्कृष्टताओं को और उत्कृष्ट करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। इस देश के हर छात्र के लिए उच्च क्षमतावान एक-सी शिक्षा सर्व सुलभ होनी चाहिए, ताकि हर बच्चा समान अवसरों के साथ आगे बढ़ सके। ताकि वह समाज के अन्य वर्गों के बच्चों के समान उतना ही योग्य बन कर या भले ही उनसे बस कुछ थोड़ा कम योग्य बन कर यदि वह देश के प्रशासनिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करे, तो यह देश के स्वास्थ्य के लिए ज्यादा अच्छा हो।

यद्यपि, हर किसी की अपनी अलग क्षमता होती है, किन्तु यह एक अलग बात है। किन्तु कठिनाई तो यही है कि जिसको कम योग्यता में, कम क्षमता में, कम उत्कृष्टता में कोई ‘माल’ मिल रहा हो ! कोई ‘मलाई’ मिल रही हो ! तो वह और ज्यादा उत्कृष्ट होने का भला क्यों प्रयास करें? क्योंकि, उसमें मेहनत लगती है ! क्योंकि, उसमें समय खर्च होता है ! क्योंकि, उसमें ऊर्जा लगती है ! …तो बिना मेहनत, बिना ऊर्जा, बिना समय के यदि ‘आराम’ से कोई चीज मिल जाये, तो फिर ऐसी परिपाटी का विरोध करना ही ज्यादा उचित है, जो साधारण लोगों को अत्यधिक मेहनत करने की सलाह देती हो ! इस प्रकार अम्बेडकर के संविधान में, उनके बनाये कानून में आरक्षण की समय सीमा तय कर जाने के दिये जाने के बावजूद आरक्षण की इस समय सीमा को बारम्बार बढ़ाया जाता रहा है और इस प्रकार की राजनीति करके केवल और केवल अपने वंश का हित किया जाता रहा है और जिन क्षेत्रों में भी हम लोग कमजोर वर्गों को आगे बढ़ते हुए देखते हैं, वह अपने प्रतिनिधियों की मदद से कुछ एक वर्गों के कुछ एक मात्र लोगों का ‘शहंशाह’ बन जाना है ! उन कमजोर वर्गों के करोड़ों लोगों का अब तक कोई हित नहीं सधा है ! बल्कि कुछ एक परिवार, जो आगे बढ़ते चले गये हैं, वही अभी बढ़ते चले जा रहे हैं ! मतलब आरक्षण द्वारा आगे बढ़े हुए जो लोग मलाई खा-खा कर मोटा गये हैं, उनके बच्चे भी मलाई खा रहे हैं और इस आरक्षण का लाभ वास्तव में कमजोर वर्गों के लोगों के कुछ अंश तक ही सीमित रह गया है !  इस प्रकार अधिकांश कमजोर और क्षमताहीन लोगों ने अपनी ‘अप्रतिभा’ और ‘अयोग्यता’ से विभिन्न प्रशासकीय प्रक्षेत्रों में अत्यन्त कमजोर प्रदर्शन करते हुए देश के तमाम नागरिकों के हितों को अनन्त चोट पहुंचायी है !…और, सच तो यह है कि इसे हम हर रोज अपने देश में विभिन्न प्रशासनिक हलकों में होता हुआ देखते हैं ! किन्तु, हम कुछ कर पाने में अक्षम है ! क्योंकि, हमारा राजनीतिक नेतृत्व यही चाहता है या हमारे राजनीतिक क्षेत्र का एक बहुत बड़ा वर्ग यही चाहता है ! क्योंकि, इस व्यवस्था से वह अपनी रोटियां बहुत अच्छी तरह सेंक पा रहा है ! दूसरे का चूल्हा बुझा कर अपनी रोटी सेंकने की यह कुप्रथा कब तक चलती रहेगी!? यह भी देश के सम्मुख एक बहुत बड़ा प्रश्न है! क्या इस व्यवस्था को बदला जा सकता है ? मेरे विचार से शायद नहीं ! क्योंकि, समाज का प्रत्येक व्यक्ति उच्च क्षेत्र में समान पहुंच पाने के लिए एक सबसे सुगम राह ही ढूंढता है और वह सुगम राह तो आरक्षण ही है !…और, जब सुगमता पूर्वक ही सब मिलने लगे और जब देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा वर्ग यही चाहने लगे, तो फिर योग्यता का ना तो कोई अर्थ बच जाता है और ना कोई महत्त्व ही बचता है ! एक विशालकाय देश के लिए उच्च क्षमतावान लोगों का प्रतिनिधित्व कितना जरूरी है, यह तो केवल कोई पढ़ा-लिखा विवेकशील व्यक्ति ही बता सकता है या समझ सकता है।

किन्तु, इस तरह की सोच से यह देश कब उबर पायेगा ?…और, सही मायनों में इस देश को चलानेवाले लोग कब हर प्रकार से उच्च शैक्षणिक योग्यता, प्रतिभा और क्षमता से परिपूर्ण हो पायेंगे? यह प्रश्न देश के 140 करोड़ लोगों के सम्मुख मुंह बाये खड़ा है !

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