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कहने से पहले कुछ सोच भी लेना होता है !!

कहने से पहले कुछ सोच भी लेना होता है !!

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राजीव थेपड़ा

आज से 100 साल पहले संसार के किस क्षेत्र में किस तरह की दशाएं थीं, किस तरह के परिवेश थे, किस तरह का वातावरण था ; उसके अनुसार आज 100 साल बाद कोई भी व्यक्ति 100 साल पहले की स्थितियों को वर्तमान में ज्यों का त्यों रखते हुए यह सोचे और वर्तमान की परिस्थितियों के अनुसार 100 साल पहले की चीजों को गलत समझे या बताये या महसूस करे…कोई भी स्थिति किसी भी हाल में सही नहीं कही जा सकती।
क्योंकि, समाज 100 साल में क्या हर 25 साल में पर्याप्त रूप से बदल जाता है। यह बदलाहट सभी क्षेत्रों/दिशाओं में होती है। समाज की भौतिक तरक्की के साथ उसकी मानसिक बुनावट भी पूरी तरह से बदल जाती है। …तो, यदि 100 साल पहले जो कुछ हुआ करता था, वह आप समझ लीजिए कि अब तक तो 04 बार पूरी की पूरी तरह बदल चुका होगा या आज के दौर में चौथी बार बदल चुका है।
…तो, 100 साल पहले का आधार हम आज के लिए कैसे चुन सकते हैं? आज के लिए चुनना हो, तो अधिक से अधिक 20-25 साल पूर्व की स्थितियों को आधार बनाया जा सकता है। अब जैसे हम स्वयं 50-52 साल के हो चुके हैं। मुझे याद है कि अभी से 25 साल पहले तक जब हमारी दादी जी हुआ करती थीं, उस काल में कितनी तरह की छुआछूत थी। घुंघट प्रथा थी। इसके अलावा भी स्त्रियों के लिए तरह-तरह की बेड़ियां थीं। यह महज 25 साल पहले की बात है और हम उससे चौगुने से भी अधिक बीत चुके समय की बात कर रहे हैं !
…तो, 100 साल पहले प्रेमचंद जैसे लेखकों का जो भी समय था, उसमें जो माहौल था, उसके अनुसार उनकी सोच पर्याप्त रूप से विकसित थी और तत्कालीन समाज में नैतिकता को पोषित करने के हिसाब से पूर्णरूपेण समयानुकूल भी थी। अब चूंकि आज के माहौल में नैतिकता का पूरी तरह से लोप ही हो चुका है और आधुनिकता नंगी होकर हमारे चारों और नाच रही है। कितनी ही स्त्रियां लगभग अश्लील व्यवहार करते हुए विभिन्न मीडिया के माध्यमों पर अपना जलवा बिखेर रही हैं और न जाने कितनी ही अश्लीलता हमारी चारों तरफ पसरी हुई है और उन अश्लीलताओं में स्त्री बराबर की हिस्सेदार है, बल्कि स्त्री होने के कारण उसकी जिम्मेवारी और भी अधिक बनती है। लेकिन, यह अश्लीलता ही उनकी आमदनी की सबसे बड़ी स्त्रोत बन चुकी है।…और, जब हम कमाई के बारे में सोचते हैं, तो येन-केन-प्रकारेण हर साधन हमें “उपयुक्त” और यहां तक की “लीगल” लगता है।
…तो, अब के दौर में किसी भी प्रकार की नैतिक शुचिता की कोई बात ही नहीं आती !! …तो, 100 साल पहले के नैतिक शुचिता वाले दौर की बात करते हुए और उसे आधार बनाते हुए, आज 100 साल बाद नैतिक शुचिता से बिल्कुल हीन माहौल में बीत चुकी उन चीजों को रखना और आज के वित्त पोषित व एवं उपभोक्तावादी माहौल के अनुसार उन चीजों को गलत बताना, यह बात, मेरी समझ से या तो मासूमियत कही जायेगी या मूर्खता !! समझदारी किसी भी तरह से नहीं कही जा सकती, चाहे ऐसा कहनेवाला मेरा अन्यतम मित्र या मेरा कोई रिश्तेदार या स्वयं मेरी पत्नी अथवा मां ही क्यों ना हो !!
सोचने को तो कोई भी बात सोची जा सकती है। लेकिन, उस सोचे जाने में एक विवेक भी होना चाहिए और जब वह विवेक हमारे स्वयं के भीतर ही नहीं रहता, तो हम महान से महान लोगों को भी तुच्छ ठहरा सकते हैं ! उनके विचारों को निम्न या दोयम दर्जे का साबित कर सकते हैं ! लेकिन, ऐसा करते हुए क्या हम स्वयं महान हो जाते हैं? या स्वयं बहुत ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण हो जाते हैं ? इस पर मेरी समझ से हजारों प्रश्नचिह्न खड़े हो जाते हैं !!
मैं नहीं जानता कि आज के दौर के बड़े से बड़े लेखक भी प्रेमचंद के लेखन और उनके चरित्र की कसौटी के सन्मुख कहां खड़े होते हैं और उनके विचारों को गलत या त्याज्य बताना किस सीमा तक उचित है !…और, यदि उचित नहीं है, तो इस तरह का अनुचित कर्म करते हुए हमें सौ बार नहीं, अपितु हजार बार और लाख बार सोचना चाहिए !!

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