राजीव थेपड़ा
दरअसल, इस चीज़ को इस तरह समझा ही नहीं जा सकता…….. क्योंकि पश्चिमीकरण की आंधी ने हमारी सोच में कुछ ऐसे जटिल पेंच डाल दिये हैं, जिससे लगता है कि स्त्री गुलाम रही है ! दरअसल, समस्या यहीं शुरू होती है। जब हम अपने सामान्य से जीवन में किसी और की परिभाषाओं को लागू करने की चेष्टा करते हैं, तो निश्चय ही निष्कर्षों में भी फेर-बदल होना ही होगा ! भारतीय विवाह व्यवस्था को मैं पारिवारिक व्यवस्था या एक संस्था के रूप में एक बेहतर विकल्प मानता रहा हूं, जो कि वह निस्संदेह है भी, किन्तु किसी भी चीज़ की वास्तविक सुन्दरता उसके अपने स्वास्थ्य में निहित होती है !
कहते हैं न…आप भला, तो जग भला !! तो हर संस्था, हर संस्थान के साथ भी यही बात है ! अगर वहां के लोग जब तक मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं, तभी तक संस्था/संस्थान का भी दायित्व ठीक से निभाया जा सकता है। किन्तु, अगर एक अंग/एक व्यक्ति भी किसी भी दृष्टि से गड़बड़ हुआ, तो सब कुछ क्रमशः फेल होने लगता है !! वैसे ही हमारे समाज में विवाह के साथ हुआ जब हमने स्त्री को अपने क्लच में रखने की मानसिकता बनानी शुरू की। दरअसल, जब भी हम किसी को भी अपने प्रभुत्व से दास बनाना चाहते हैं, तब हम सामने वाले की निजता का अपहरण करने लगते हैं !! .. और, दूसरी बात स्त्री द्वारा किये जानेवाले घर के कार्यों की भी घोर अवहेलना करनी शुरू कर दी। साथ ही साथ, पुरुष द्वारा किये जानेवाले वाह्य कार्यों को महत्त्वपूर्ण बताना शुरू कर दिया !!
हालांकि, युद्ध करना और जीतना कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य था कि जिसके बिना जगत नहीं चलता और जिससे मानवीय जीवन का कौन-सा सुन्दरतम रूप सामने आता था। यह तक भी कभी सोचा ही न गया, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि स्त्री राजनीतिक परिदृश्य से गायब होती चली गयी और पुरुष के राजनीतिक और सामाजिक दबदबे ने स्त्री को मानवीय सम्मान से भी च्यूत करना आरम्भ कर दिया !! पुरुष के विभिन्न तरह के वाह्य कार्यों में बिलकुल निमग्न होने के कारण उनके द्वारा स्वभावतः और नियमतः ऐसी चीजें रची गयीं, जिसके चलते समाज में पुरुष प्राधान्य बढ़ता चला गया और पुरुष ने पुरुष की गाथा रचनी शुरू कर दी, जिनमें स्त्री सिर्फ उसकी बांदी या हद से हद एक दोयम दर्जे की सहयोगिनी भर थी !!
अब कुछ कार्यों को महत्त्वपूर्ण बता कर उन्हें पूर्ण करने वालों को भी महत्त्वपूर्ण बताये जाने के कारण कालान्तर में बाकी के अ-महत्वपूर्ण लोगों में प्रतिक्रिया भी लाजिमी ही थी, सो हुई और जिसका परिणाम हमारा वर्तमान है, जिसमें तरह-तरह के वर्गों का संघर्ष तो है ही, किन्तु एक-दूसरे के परिपूरक स्त्री-पुरुष का संघर्ष न केवल व्यर्थ है; अपितु यह इतनी दयनीय मानसिकता का संघर्ष है कि इस पर कुछ कहना-लिखना भी उतना ही व्यर्थ लगता है !!
सीधा-सा फंडा था कि हर जीव-निर्जीव महत्त्वपूर्ण है और ब्रह्मांड का अनिवार्य हिस्सा भी ; सो उसे प्रेम और सम्मान देना मानव का प्रथम स्वभाव होना चाहिए था (मैं इसे कर्तव्य नहीं कहना चाह रहा !!) तो स्वभाव में तो प्रेम और सम्मान का वास होना था, मगर अपने अहंकार के मारे हो गया यह परस्पर प्रतिस्पर्धा का लगभग शत्रुतापूर्ण वास !! और, प्रतिस्पर्धा अगर है, तो उसका प्रति-दंश भी झेलना ही ठहरा !! सो, समाज इस दिशा को जा चुका कि हर कोई मित्र नहीं, बल्कि शत्रु ही शत्रु दीख पड़ता है और स्त्री तो चाहे वह बच्ची हो-जवान हो या अधेड़, उसको तो सदा कांटों के बीच और तलवार की नोक पर चलना है कि कौन-कब………!!??
स्त्री का कामकाजी होना उसकी इसी प्रतिस्पर्धी भूमिका का ही एक हिस्सा है, जो पुरुषों द्वारा किये जानेवाले आमदनी पैदा करनेवाले कार्यों को इम्पाॅर्टेंट मानने से पैदा हुए !!
अरे भाई स्त्री कामकाजी कब नहीं थी ! जब से स्त्री पुरुष हैं, दोनों ही कामकाजी रहे हैं !! हां, यह अवश्य है कि अपनी दैहिक स्थिति के अनुसार दोनों ने अपने कामों का बंटवारा कर लिया !! अब भला यह कौन जानता था कि पुरुषों का काम कल को महत्त्वपूर्ण और स्त्रियों का काम गौण समझाया जाने लग जाया करेगा !! और, जब एक गलती होती है, तो अगर गलती मान ली जाये, तब तो अच्छा होता है, मगर अगर अंहकारवश गलती न मानी गयी, तो गलतियों की एक पूरी श्रृंखला बन जाने में देर नहीं लगती और दुर्भाग्य से स्त्री-पुरुष के हमारे सम्बन्ध हमारे द्वारा की जा रहीं गलतियों की एक श्रृंखला ही है !!



