राजीव थेपड़ा
हम में से सबको जिन्दगी में बहुत बाहर ऐसा महसूस होता है कि हम अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद जो डिजर्व करते हैं, वह पा नहीं सके। इतना ही नहीं, अपितु बजाय हमारे, हमसे बहुत ही कम मेहनती और कम योग्यता वाले, बल्कि योग्यता-विहीन लोग हमसे बहुत आगे निकल गये हैं और ऐसा एक बार नहीं कई बार होता है, जब साफ-साफ महसूस होता है कि बहुत सारे मायनों में हम अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत बेहतर हैं। उसके बावजूद हमें वह मुकाम या वह प्लेटफार्म नहीं मिला, जिसके कि हम हकदार थे और इसके बनिस्बत हमारे वे प्रतिद्वंदी न केवल हमसे बहुत आगे बढ़ गये हैं, बल्कि उन्हें उनकी डिजर्वनेस से बहुत ज्यादा मिल गया।
इसका कारण महज यह है कि सफलता के जो पैमाने हमने अपने जीवन में तय किये हैं, वे हमारी ऐसी ही भौतिक उपलब्धियों की कसौटी पर आंके जाते हैं।…और, हमारी कसौटियां यही हैं कि हमने कितना कमा लिया है। हमारे पास भौतिक सुख-सम्पदा के रूप में कितना कुछ है और हम कितने ऐश्वर्या ऐश्वर्यवान हैं। सच कहा जाये, तो सफलता का पैमाना यह कतई नहीं होना चाहिए ; बल्कि यह होना चाहिए कि हम कितने संतुष्ट हैं, कितने सुखी हैं और कितना स्मूथ जी रहे हैं। इसका ठीक उल्टा हम अपने आप को बुरी तरह प्रतिस्पर्द्धी बनाते हुए एक तरह का यंत्र बन कर जीते चले जाते हैं, जिसका दरअसल कोई मतलब होरा ही नहीं !
…और, जिस यंत्र का काम सिर्फ और सिर्फ पैसे उगलते जाना है, इसके सिवाय कुछ नहीं ऐसे यांत्रिक जीवन को एक्चुअली जीवन तो कहा ही नहीं जा सकता। कहा जाना भी नहीं चाहिए।
एक्च्युअली सफलता का पैमाना तो हम सब ने एक ही समझा हुआ है और अपने निकटतम व्यक्ति से लेकर दूर-दूर तक जहां तक भी देख पाता हूं, उन सबका पैमाना यही दिखाई देता है और उसी के चलते इस तरह की बात मन में आती है। इसमें हम सभी शामिल हैं। लेकिन, हमने ऐसे ही जीवन को जीवन मान लिया है ! इसीलिए हमें हमसे आगे बढ़ गये अन्य लोगों को देख कर ऐसा लगता है कि हम पिछड़ गये हैं। हालांकि, ऐसा होता नहीं है ! हमारा आनन्द, हमारा सुख, हमारा स्वास्थ्य और हमारा जीने का तरीका, एक्च्युअली इंपॉर्टेंस इन चीजों की है ; न कि पैसों की!…और, आगे बढ़ गये, ऐसा सोचने का मतलब ही यही है कि उसके पास बहुत पैसा आ गया है, तो वह सफल हो गया है।
देखा जाये, तो हम सबके साथ या हममें से बहुत के साथ एक सबसे बड़ी बात तो यही है कि सम्भवत हमें करना कुछ और था और हम कर कुछ और रहे हैं। हमारे जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यही होती है, जिसके चलते वैसे तो बेशक हम अपने बिंदास स्वभाव के चलते जीवन बहुत अच्छी तरह निभा ले जाते हैं, लेकिन जो करना चाहते थे, वह नहीं कर पाने का मलाल हमेशा यानी जीवन भर हमें बना ही रहता है।
एक्चुअली मर्म यह है कि हम सभी शक्ति चाहते हैं और शक्ति बहुत तरह से आती है, किन्तु आर्थिक शक्ति हर तरह की शक्ति को अपने साथ खींच लेती है। एक्चुअली आदमी को चाहत तो शक्ति की ही होती है और इस युग में लीगल शक्ति आर्थिक ही है। क्योंकि, बाहुबली होना तो अपने आप में एक तरह का अनैतिक कर्म हो जाता है। लेकिन, आर्थिक रूप से सबल होना या बहुत ही उन्नत होना आपको न केवल इज्जत प्रदान करता है, बल्कि अनेकानेक रसूखदारों के साथ होने के अवसर (जिसे हम गौरव भी समझते हैं) भी प्रदान करता है और ऐसी शक्ति हर कोई चाहता है। लेकिन, यह हर किसी को मिलती नहीं और यही हमारा असंतोष है, जिसका सामान्य अर्थों में कोई उपाय नहीं ! हां , अध्यात्म की ओर मुड़ें, तो इसका कोई अर्थ ही नहीं है !!
…तो, मेरा ख्याल है कि हमें इस तरीके से सोचना बंद करना चाहिए, क्योंकि यह तरीका बिलकुल फिजूल है और इस फिजूल सोच को सोचने से हमारे अन्दर निष्कर्ष भी फिजूल ही निकलते हैं और ऐसे निष्कर्ष हमें एक्चुअली नेगेटिव रूप में उद्वेलित करते हैं।लेकिन, ऐसा कतई नहीं होना चाहिए।…तो, फिर आज से हम अपने सोचने के तरीकों को बदलना शुरू कर दें, यही हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर होगा और जब हमारा मानसिक स्वास्थ्य सुन्दर होगा, तो हमारा जीवन भी अपने आप सुन्दर हो जायेगा !! अस्तु !!