©राजीव थेपड़ा
बजट आया और गया। बजट पर बहुत कुछ कहा भी गया। इधर वालों ने इधर का कहा, उधर वालों ने उधर का कहा। तब से बंदा परेशान है कि बजट ने दरअसल क्या कहा ? क्या किया ? या कि कुछ किया भी कि नहीं किया ? क्या है कि हर साल बजट आता है। इधर वाले उसकी प्रशंसा करते हैं, उधर वाले उस की निंदा करते हैं। आम आदमी को समझ आता ही नहीं कि यह बजट भला है क्या बला ! एक आम आदमी नून-पानी के चक्कर में यूं ही परेशान रहता है कि उसे बजट के आने और जाने का, पहली बात तो कुछ पता ही नहीं चलता और अगर गलती से घर में अख़बार आता है, तो अगर उसने अखबार की हेडिंग के अलावा कुछ और पढ़ भी लिया, तो भी उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। उसे सिर्फ इस बात से मतलब है कि घर में आनेवाला राशन सस्ता हुआ कि नहीं और इस बढ़ती महंगाई के आलोक में उसे आयकर में कुछ छूट मिली कि नहीं ! एक आम आदमी ही क्यों, बजट के आने और जाने से दरअसल किसी को फर्क भी नहीं पड़ता ; वह चाहे अमीर हो या गरीब। हां, बजट के आने के दो-तीन दिनों से लेकर हफ्ते भर पूर्व से अगले 02 दिनों तक अखबार और चैनलों में इसकी चर्चा, इसके विश्लेषण इत्यादि-इत्यादि भले ही चलते रहते हैं।
यानी बजट का आना और जाना सिर्फ और सिर्फ मीडिया के लिए और किसी हद तक शेयर बाजार के सेंसेक्स के लिए उपयोगी होता है ! बाकी अमीर आदमी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या महंगा हुआ या क्या सस्ता हुआ ! अलबत्ता, गरीब आदमी अपने मतलब की कुछ वस्तुओं के कुछ सस्ता होने की आस में बजट के बारे में कुछ सुनना-समझना और जानना चाहता है ! लेकिन, उसे बजट हर बार जितना हंसाता है, उतना ही गमगीन भी करता है ! क्योंकि, अक्सर बजट में उसके लायक कुछ होता ही नहीं ! अलबत्ता मीडिया के अलावा नेताओं के लिए इस बजट में एक से बढ़ कर एक चीजें होती हैं और इधर वाले चाहे जैसा भी बजट क्यों न हो, उसकी घोर प्रशंसा करते नहीं अघाते। …तो, उधर वाले चाहे बजट कितना ही अच्छा क्यों नहीं हो, उसकी आलोचना और निंदा से बाज नहीं आते !
इसे हम “दृष्टि वैविध्य” भी कह सकते हैं ! जो अपने-अपने स्वार्थों के अनुसार या अपने-अपने पाले के अनुसार लोगों में जन्म लेता है ! इसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता और इसी आधार पर तरह-तरह के जो कयास लगाये जाते हैं, दरअसल उनका भी अक्सर कोई मतलब नहीं होता ! क्योंकि, भारत की जनता का अधिकांश हिस्सा इस बजट की विवेचना के बिलकुल बाहर है। …और, कहीं खेतों में हाड़ तोड़ते हुए, कहीं सड़क पर पसीना बहाते हुए, कहीं फैक्ट्रियों और ऑफिसों में सुबह से शाम तक माथा-पच्ची करते हुए, दरअसल जिन्दगी की उस जंग से जूझ रहा होता है, जिससे न तो बाहर निकलने का कोई रास्ता होता है और न ही जीतने का कोई समाधान!
इस प्रकार बजट जब आता है, तो बंदा ऊहापोह में पड़ जाता है कि इस बजट का वह करे, तो क्या करे ! क्योंकि, बजट तो उसे समझ नहीं आता और बजट के आने और जाने से उसकी जिन्दगी में कोई अन्तर भी नहीं आता ! …तो, आखिर यह बजट है क्या बला ?…और, इस बाबत बंदे के अब तक के चिन्तन का सार यही है कि बजट वह बला है, जिसमें आम आदमी से बहुत दूर एक अजूबी-सी अर्थव्यवस्था को कलम की पेचींदगियों द्वारा और भी बुरी तरह उलझा कर और फिर उसे सुलझाने की कसरत की जाती है ! लेकिन, दुर्भाग्य से आज तक इस कसरत के परिणामस्वरूप आम आदमी की देह-यष्टि तनिक भी मज़बूत नहीं हुई, बल्कि कमज़ोर ही होती जा रही है! …तो, ऐसे बजट को भारत-माता की समस्त सन्तानों का सादर प्रणाम !