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जेल मैनुअल से भेदभाव वाले नियम हटाएं : सुप्रीम कोर्ट

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जाति विशेष के कैदियों से सीवर साफ कराना गलत, पुलिस कार्रवाई करे

New Delhi news : सुप्रीम कोर्ट ने जेल मैनुअल से जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले नियमों को हटाने को कहा है। शीर्ष अदालत ने कहा कि जाति विशेष के कैदियों से सीवर टैंक साफ कराना गलत है। कोर्ट ने कुछ राज्यों को निर्देश दिए हैं कि जेल में जाति के आधार पर काम का बंटवारा न किया जाए।

 सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई थी याचिका

जेल में जातिगत आधार पर काम के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने गुरुवार को आदेश में कहा कि इन चीजों की अनुमति नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने ऑर्डर में ये भी कहा कि किसी विशेष जाति के कैदियों से सीवर टैंक साफ कराना गलत है। पुलिस को इस मामले में कार्रवाई करनी चाहिए। शीर्ष कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया कि जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले नियमों में तीन महीने में बदलाव किया जाए।

पत्रकार सुकन्या शांता ने उठाया था मामला

दरअसल, यह मामला एक पत्रकार सुकन्या शांता ने उठाया था। उन्होंने दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की और दलील दी कि देश के करीब 17 राज्यों में जेलों में बंद कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव हो रहा है। इस पर पहली सुनवाई जनवरी 2024 में हुई। कोर्ट ने 17 राज्यों को नोटिस भेजकर जवाब मांगा। छह महीने के अंदर केवल उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने ही अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया।

याचिकाकर्ता सुकन्या शांता मानवाधिकार कानून और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं

याचिकाकर्ता सुकन्या शांता मानवाधिकार कानून और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं। उन्होंने अपनी खबरों के जरिए जेल में जातिगत भेदभाव का मुद्दा उठाया। इस मुद्दे पर 2020 में रिसर्च रिपोर्ट भी तैयार की। रिपोर्ट में जिक्र था कि भारत के 17 राज्यों में कैदियों को काम का बंटवारा उनकी जाति देखकर किया जाता है। सुकन्या की यह रिपोर्ट ‘द वायर’ पर पब्लिश हुई थी।

दिसंबर 2023 में लगाई गई थी याचिका

इस मामले में दिसंबर 2023 में याचिका लगाई गई। सुप्रीम कोर्ट ने 10 महीने के अंदर सुनवाई पूरी कर ली। 10 जुलाई को आखिरी सुनवाई के दौरान कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल नियमावली के कुछ प्रावधानों को भी अदालत में पढ़ा था। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने तर्क दिया कि हमारी जेलों में कोई जातिगत भेदभाव नहीं है, लेकिन चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने जेल नियमों को पढ़ा और उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई। नियम 158 में मैला ढोने के कर्तव्य (जिम्मेदारी) का जिक्र है। यह मैला ढोने का कर्तव्य (जिम्मेदारी) क्या है? इसमें मैला ढोने वालों की जाति क्यों लिखी गई है। इसका क्या मतलब है? इसके बाद चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच ने पश्चिम बंगाल के वकीलों से जेल नियम भी पढ़ने को कहा। वहां भी जेल नियम में इसका जिक्र था कि सफाई कर्मचारी कौन होना चाहिए। इसे पढ़ने के बाद बेंच ने पूछा कि क्या आपको इसमें कोई समस्या नजर नहीं आती है? सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि जेल के ये नियम बेहद तकलीफदेह हैं।

क्या है केंद्र सरकार का पक्ष?

केंद्र सरकार ने इसी साल फरवरी में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक अधिसूचना जारी की थी। इसमें कहा गया कि मंत्रालय के ध्यान में आया है कि कुछ राज्य के जेल मैनुअल कैदियों को जाति और धर्म के आधार पर बांटते हैं और उसी आधार पर उन्हें काम सौंपते हैं। जाति, धर्म, नस्ल, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव होता है। यह भारत के संविधान के तहत गैर-कानूनी है। इसमें कहा गया है कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके राज्य जेल नियमों में किसी तरह का कोई भेदभावपूर्ण प्रावधान नहीं हो।

रिपोर्ट में 3 राज्यों का जिक्र

1. राजस्थान में कैदी अगर नाई होगा, तो उसे बाल और दाढ़ी बनाने का काम मिलेगा। वहीं, ब्राह्मण कैदी को खाना पकाने का काम मिलता है। वाल्मीकि समाज के कैदी सफाई करते हैं।

2. केरल में आदतन अपराधी और दोबारा दोषी ठहराए गए अपराधी के बीच अंतर किया जाता है। आदतन डकैत या चोर को अलग-अलग कैटेगरी में बांटा गया। बाकी से अलग रखा जाता है।

3. उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 1941 में कैदियों के जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखने और जाति के आधार पर सफाई, संरक्षण और झाड़ू लगाने का काम करने का प्रावधान है।

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