होम

वीडियो

वेब स्टोरी

जब भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ ने बनाया था अमेरिकी नौसेना की जासूसी का प्लान

IMG 20241014 WA0008

Share this:

1971 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिकी विमानवाहक पोत बंगाल की खाड़ी में भेजने पर नए सिरे से सोचने को मजबूर हुआ था भारत

New Delhi news :  भारत और अमेरिका के रिश्तों की मजबूती आज दुनिया देख रही है और ये लगातार बढ़ती ही जा रही है, लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। एक समय तो ऐसा भी था जब भारत की खुफिया एजेंसी रिचर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ ने अमेरिका के खिलाफ जासूसी करने के लिए वैश्विक खुफिया गठबंधन बनाया था। ये कहानी है 1970 के दशक की और इसमें दो देश शामिल थे। इनमें एक तो पश्चिम में अमेरिका का सहयोगी ही था। यह एक बहुत ही दिलेरी भरा मिशन था और भारत के लिए बहुत जरूरी था।

अमेरिका के साथ नई दिल्ली के रिश्ते मुश्किल हो गए थे

वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद से अमेरिका के साथ नई दिल्ली के रिश्ते मुश्किल हो गए थे। भारत-पाक युद्ध में अमेरिका ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया और बंगाल की खाड़ी में अपना विमानवाहक पोत यूएसएस इंटरप्राइजेज को भेज दिया था। इस घटना के बाद भारत ने महसूस किया कि उसे अमेरिकी नौसेना के बारे में खुफिया जानकारी रखने की आवश्यकता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रॉ के पहले प्रमुख आरएन काव से अमेरिकी पर जासूसी करने को कहा, लेकिन काव को पता था कि रॉ अकेले ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए भारत को विदेशी सहयोगियों की आवश्यकता थी। रॉ ने पहले सोवियत रूस की केजीबी से अमेरिकी सेना की खुफिया जानकारी मांगी, लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि यह भी काफी नहीं था। ब्रिटेन, जर्मनी और इजरायल जैसे देश अमेरिका के करीब थे और भारत की मदद नहीं करने वाले थे।

बी रमन ने ‘काव बॉयज ऑफ रॉ’ पुस्तक लिखी है

लेकिन एक पश्चिमी देश था जो भारत की मदद कर सकता था। यह था फ्रांस और काव ने फ्रांस की शीर्ष विदेशी खुफिया एजेंसी एसडीइसीइ के प्रमुख से संपर्क किया। भारतीय खुफिया एजेंसी में अपने अनुभवों पर बी रमन ने ‘काव बॉयज ऑफ रॉ’ पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने भारत की योजना के बारे में बताया है। रमन ने अपनी किताब में बताया कि फ्रांस कागजों पर अमेरिका का सहयोगी था, लेकिन यह अमेरिका के प्रति संदेह रखता था। यही वजह थी कि फ्रांस रॉ और भारत की मदद करने के लिए सहमत हो गया। लेकिन फ्रांस एक और अमेरिकी सहयोगी ईरान को शामिल करना चाहता था। ईरान पर शाह मोहम्मद रेजा पहलवी का शासन था।

ईरान के शाह को यह विचार पसंद आया

ईरान के शाह को यह विचार पसंद आया और जल्द ही ईरानी खुफिया एजेंसी सावक ने भारत के साथ काम करना शुरू कर दिया। 1975 और 1976 में पेरिस, तेहरान और नई दिल्ली में गुप्त बैठकें हुईं, जिसके बाद एक योजना बनी।

योजना थी कि भारत अपने पूर्वी और पश्चिमी तटों पर दो प्रमुख निगरानी स्टेशन स्थापित करेगा। साथ ही प्रमुख हिंद महासागर देशों में भी स्टेशन स्थापित गिए गए जाएंगे। फ़्रांस उपकरण और विशेषज्ञता प्रदान करेगा, जबकि ईरान पैसे देगा, लेकिन जल्द ही समस्या आ गई। हिंद महासागर के देश भारतीय जासूसी स्टेशन की मेजबानी नहीं करना चाहते थे। यह खबर सार्वजनिक होती को घरेलू स्तर पर बड़ा विवाद खड़ा होगा। रॉ अभी इस पर काम कर ही रहा था कि एक बड़ा संकट आ गया। 1979 में हुई इस्लामी क्रांति ने ईरान के शाह को सत्ता से हटा दिया। इससे ईरान साझेदारी से बाहर हो गया। ईरान के बाहर होने के कारण परियोजना के लिए आवश्यक धन का संकट खड़ा हो गया। इस तरह ये महत्वाकांक्षी योजना का अंततः अंत हो गया।

Share this:




Related Updates


Latest Updates