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मंथन : जवाब न देना कोई बहादुरी नहीं होती

मंथन : जवाब न देना कोई बहादुरी नहीं होती

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आनंद सिंह

कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनका जवाब चाह कर भी लोग नहीं देते। जवाब दिया जा सकता है या नहीं, यह तो बाद की बात है। असल है कि आप जवाब देने की नीयत रखते हैं अथवा नहीं। दढ़ियल राहुल गांधी, जो पहले कांग्रेस के सदर भी रह चुके हैं, उन्होंने देश के वजीर-ए-आजम मिस्टर नरेंद्र मोदी से सात सवाल पूछे थे। जाहिर है, जब सवाल प्वाइंटेड हों तो उसका जवाब देना चाहिए। बेशक, वजीए-ए-आजम को भी। लेकिन, जैसा कि देशवासी उम्मीद कर रहे थे, उनकी उम्मीद से परे जाकर देश के वजीर-ए-आजम ने उन सातों सवालों की तरफ ताका तक नहीं, जवाब देना तो दूर की बात है। अलबत्ता, लोकसभा और राज्यसभा में उन्होंने क्रमशः जो 85 मिनट और 82 मिनटों का भाषण दिया, उसमें मैं, आत्माभिमान, अहंकार का प्रस्फुटन और इस बात की भी छाप दिखी कि वह खुद भी उन लोगों के समूह में शामिल हो गए जो जनादेश की खिल्ली उड़ाने में पीछे नहीं रहते।
दरअसल, लोकसभा और राज्यसभा में बोले गए उनके हर वाक्य की अपने तई कोई भी मीमांसा कर सकता है। कई बड़े पत्रकार मानते हैं कि वह कुंठा से घिर गए हैं क्योंकि बाजार उनसे संभाले नहीं संभल रहा। फिर, भाजपा के भी कई नेता आपसी बातचीत में उनके बयान की मजम्मत करने से खुद को रोक नहीं पाए। संघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों ने कोई प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं समझी, हालांकि ये आमतौर पर होता नहीं है। जाहिर है, सभी को वजीर-ए-आजम की बातें सुहाई नहीं हैं। देश के उन नौजवानों को तो कतई नहीं, जो नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।
मूल बात यह है कि आप बीते 9 साल से शासन में हैं। आप उन 9 सालों का हिसाब-किताब देने के मूड में हैं ही नहीं। अगर दढ़ियल सांसद ने आपसे पूछ लिया कि आपके वजीर-ए-आजम बनने के पहले और बनने के बाद अडाणी कितनी बार आपके साथ फारेन टूर पर गए हैं तो उसका वजीर-ए-आजम के दफ्तर को जवाब देना चाहिए था। लेकिन, यहां तो इंदिरा गांधी से लेकर नेहरू तक की छीछालेदर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। देश का सेंटीमेंट कभी नेहरू-इंदिरा के लिए बेहद हाई हुआ करता था, इस तथ्य को खारिज करना बेहद महंगा पड़ सकता है। वजीर-ए-आजम ने सवालों का जवाब न देते हुए बिना नाम लिए जिस तरीके से कांग्रेस की हजामत बनाई, उसमें वह भाषायी मर्यादा भी भूल गए। एक वजीर-ए-आजम के मुंह से देश-दुनिया ने वो हल्की बातें सुनीं, जो इसके पहले नहीं सुनी गई थीं। आज नहीं तो कल, इसका जवाब मिलेगा जरूर।
कांग्रेस ने जैसा किया, वैसा ही भोग रही है। लोकसभा में वह दहाई संख्या में है तो अपने कर्मों के कारण। भाजपा अगर सत्ता में है तो अपने कर्मों के कारण। लेकिन नजरिए का फर्क है। जिस भाजपा के साथ 33 दलों का साथ था, आज सिर खुजाते हुए पता कर लें कि कितने दल, कितनी पार्टियां आपके साथ हैं। ये भाजपा के कर्मों का फल है। फिर, अंतिम सत्य क्या है। अंतिम सत्य यही है कि समय बेहद बेरहम होता है। आज आपका वक्त है। कल नहीं रहेगा। वक्त से तो डरना ही पड़ेगा मिस्टर वजीर-ए-आजम। कांग्रेस भी एक दौर में वक्त को अपने ठेंगे पर रखती थी। आज वक्त ने उस पार्टी को ठेंगे पर कर दिया है। ये किसी के भी साथ हो सकता है। यूपी में बसपा, बिहार में जदयू को देख लें। कई पार्टियां हैं। जो ज्यादा महत्वाकांक्षी होता है, उसे ज्यादा भुगतना भी पड़ता है।
होना यह चाहिए ता कि सवाल का जवाब दिया जाता। फिर जनता तय करती कि दढ़ियल सांसद का सवाल सही था या फिर वजीर-ए-आजम का जवाब। सियासत के किसी कच्चे खिलाड़ी की तरह जिस तरीके से इन सवालों को गटर में डालने की कोशिश की गई, उसने दरअसल बैकफायर ही किया है। आने वाले दिनों में जवाब न देने का नैरेटिव काम कर सकता है, इसकी संभावना बहुत ज्यादा है। तब, शायद जवाब आए पर शायद कोई सुनने वाला न हो क्योंमकि सवाल रोज पूछे जा रहे हैं और शब्द ब्रह्म होते हैं, इससे आप इनकार करेंगे क्या?

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