Ranchi news, Ranchi old story : मोबाइल फोन ने भले ही दूरियों को पाट दिया है। टेलीविजन सात समुंदर पार की चीजें दिखा रहा है, चंद मिनट में सैकड़ों मील की यात्रा संभव हो गई हो, परंतु जब आदमी आदमी का नहीं रहा, तो यह कैसा विकास। सच कहूं तो भूत-प्रेत नहीं, आज आदमी से डर लगता है। कौन, कहां किसे मार दे, कौन लूट जाए, बहु-बेटियों की इज्जत तो मानो…।
पहले इतना नहीं था डर
रांची से जुड़ी आठ दशक की यादों को अपने मानस पटल में समेटे रांची के नवा टोली निवासी सुमित्रा कहती हैं, नेशनल गली में जहां आज महावीर मंदिर है, एक नल हुआ करता था। आज की तरह इतने एडवांस नहीं थे हम। गैरों से पर्दा का प्रचलन था, सो आधी-आधी रात को घर की बहू-बेटियां पानी भरने बेखौफ निकलती थी। आज तो घर लौटने में थोड़ी देर हुई, तो तरह-तरह की चिंता सताने लग जाती है।
न चोरी, छिनतई का खतरा, न सड़क हादसे। बीमारियां भी आज की तरह नहीं थी। सदर अस्पताल की चिकित्सकीय व्यवस्था का क्या कहना, अंग्रेजों का शासन था, नर्स भी अंग्रेज, परंतु सेवा भाव कूट-कूट कर भरी थी। इधर, संगम होटल से आगे और उधर, सदर अस्पताल के पार जंगल ही जंगल। जंगली जानवरों के डर से देर शाम नहीं निकलते थे लोग।
विवाद भी हुआ तो थाने-पुलिस की जरूरत नहीं
जग्गनाथपुर मेला जाना हुआ तो बैलगाड़ी तैयार। कम से कम दुर्घटना तो नहीं होती थी। आस पड़ोस में किसी मसले को लेकर विवाद भी हुआ तो थाने-पुलिस की जरूरत नहीं, आपस में ही सुलह-मशविरा हो जाता था। टाउन हाल के सामने मौजूदा आटो स्टैंड के समीप पीपल का एक विशाल पेड़ था। घर में अगर किसी की मौत हुई तो घंट यहीं टांगा जाता था, विकास के नाम पर लोगों ने उसे काट दिया। आज तो इस काम के लिए जगह खोजे नहीं मिलती। संयुक्त परिवार की अवधारणा थी। एक ही छत के नीचे खाना पकता था। खुशी और गम के मौके पर स्वत: लोगों का जुटान हो जाता था। उन दिनों ऐसी थी हमारी रांची। आज कौन किसको पूछता है। सभी खुद में व्यस्त और मस्त। सामाजिक सरोकार के नाम पर सिर्फ औपचारिकताएं। इसमें कोई दो मत नहीं, बाद के वर्षों में सड़कें चौड़ी हो गई, वाहनों का दबाव बढ़ गया। ऊंचे-ऊंचे भवन बन गए, परंतु इंसानियत खो गयी।