Sahibganj news, Sahibganj update, latest news, rajmahal news, rajmahal ki pahadiyan , jharkhand news : एक ओर घने पेड़-पौधों से आच्छादित राजमहल की पर्वत शृंखलाएं, कलकल बहती जलधाराएं और दूसरी ओर निर्वाध बहती गंगा। प्रकृति की इस मनोरम छटा का भला कौन कायल नहीं होगा। शायद यही वजह रही कि मुगलों ने तब यहां अपनी राजधानी बसाई थी। हम बात कर रहे हैं साहिबगंज की। जुरासिक पीरियड की 1338 वर्ग किलोमीटर में फैली राजमहल की पहाडिय़ां, प्रवासी पक्षियों का बसेरा उद्यवा, मुगलों की यादों को समेटे जामी मस्जिद, तेलियागढ़ी किला, बारहद्वारी और इन क्षेत्रों में पाए गए 13-14 सौ करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म को नजदीक से देखने, समझने की प्रबल इच्छा के साथ हम साहिबगंज स्टेशन पर थे।
350 फीट ऊंची पहाड़ी और बस्तियां 425
सुन रखा था साहिबगंज की सीमा में पडऩे वाली राजमहल की पर्वत शृंखलाओं पर पहाडिय़ा जनजाति की 425 बस्तियां हैं। हम उधर ही बढ़ चले। साहिबगंज से लगभग 10 किलोमीटर दूर महादेवगंज के रास्ते उबड़-खाबड़ और संकीर्ण सड़कों पर हम बढ़े जा रहे थे। गाड़ी से इससे आगे ले जाना संभव नहीं था। अपने कुछ अन्य मित्रों के साथ हम पहाड़ी की ऊंचाई मापने लगें। हमें लगभग 350 फीट ऊंची पहाड़ी की चढ़ाई करनी थी।
कौन लील रहा इसकी हरीतिमा
यह क्या साहिबगंज की वादियों की हरीतिमा को कोई लील रहा है। पहाडिय़ा कई जगहों पर छलनी नजर आई। दर्जन भर से भी अधिक क्रशर व भारी मशीनें पहाड़ों का सीना चाक कर रही हैं। पगडंडियों से आधे-अधूरे कपड़े में लिपटे माथे पर लकडिय़ों के गट्ठर के साथ गुजरते पहाडिय़ा महिला-पुरुषों को देख कुछ असहज सा महसूस हुआ। असहज इसलिए कि अब से थोड़ी ही देर पहले एक स्थानीय कह रहे थे, इन पहाड़ों के वास्तविक मालिक यही पहाडिय़ां हैं। फिर यह फटेहाली क्यों?
हैं पहाड़ों के मालिक, फांकाकशी में कट रही जिंदगी
मित्र फिर दोहराता है, सरकार के खाते में इन पहाडिय़ों के नाम से कई-कई एकड़ का पहाड़ दर्ज है, जिसका अंदाजा इन जनजातियों को भी नहीं। क्षेत्र में प्रभावी संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम के तहत यहां की जमीन खरीदी-बेची अथवा लीज पर नहीं दी जा सकती, परंतु सरकार के नुमाइंदे यह सब कर रहे हैं। रही पहाडिय़ों की बात तो बिचौलिए बहला-फुसलाकर इनकी जमीन व पहाड़ कौड़ी के मोल खरीद रहे हैं। गरीबी का दंश झेल रहे इन पहाडिय़ों के लिए हजार-दो हजार रुपये भी बहुत बड़ी रकम होती है, सो लुट-पीट रहे हैं। बांस व लकडिय़ां बेच गुजर-बसर कर रहे हैं।
बांसों की झुरमुट, समझो पास ही है पहाड़ियों की बस्ती
कुछ देर की खामोशी के बाद दोस्त फिर चुप्पी तोड़ता है, सामने बांसों की झुरमुट देख रहे हो, पहाड़ों पर जहां भी ऐसा देखो, समझो आसपास पहाडिय़ों की बस्ती है। कुछ पालतू पशु भी अब दिखने लगे थे। गांव नजदीक था। हमारे चेहरे पर थकान थी, परंतु उन पगडंडियों से गुजर रहे पहाडिय़ों के लिए यह चढ़ाई एक सामान्य प्रक्रिया थी। जरूरत की हर छोटी-मोटी वस्तुओं की खरीदारी के लिए उन्हें यह दूरियां लांघनी पड़ती है। थोड़ी देर के लिए अगर आप यह भूल जाएं कि हम 350 फीट की ऊंचाई पर है, यहां की धरती गांव के समकक्ष है। बच्चे दौड़ रहे हैं, बुजुर्ग दलान में बैठे है और महिलाएं काम-काज मेंं व्यस्त। खेतों में फसलें भी लहलहा रही हैं।
रस्सी नहीं, बांस है न… कुएं से जल निकासी को
गांव के ही एक मालटा परिवार के साथ हम तकरीबन आधा किलोमीटर दूर पहाड़ी रास्ता तय कर उस स्थल पर भी जाते हैं, जहां प्राकृतिक झरने को बांधकर कुएं का स्वरूप दिया गया है। एक महिला रस्सी के बदले बांस के सहारे यहां पानी भरती दिखती है।
आज भी सीने पर मूंग दल रहे महाजन
प्राकृतिक झरने से लौटने पर एक व्यक्ति खाट पर लेटा नजर आता है। उसकी भाव भंगिमा पहाडिय़ों से इतर है। समझना मुश्किल नहीं, यह महाजन है। दोस्त कहता है, पहाडिय़ों की जिंदगी को बद से बदतर बनाने में इनकी बड़ी भूमिका है। मुसीबत की घड़ी में ये अगर हजार रुपये देते हैं, तो तीन माह बाद डेढ़ हजार रुपये वसूलते हैं। गरीबी की वजह से अधिकतर पहाडिय़ों के लिए कर्ज लौटाना मुश्किल हो जाता है। फिर लहलहाती फसल, खेत, जमीन और यहां तक की घर पर भी महाजन चढ़ बैठते हैं। और फिर गुलामी में ही बीत जाती है इनकी जिंदगी। सूरज पास की पहाड़ियों के पीछे ढल रहा है, हम लौट रहे हैं। मन उदास है, पहाड़ियों की पहाड़ सी जिंदगी की कथा व्यथा जानकर।