Chandrayaan -3, moon mission, ISRO, national news, National update, mystery of the moon, space mystery, mystery of space, research of space, science or technology: चांद अब दूर नहीं रह गया। अब तो वह हर दिल अजीज हो गया है, क्योंकि भारत ने गत 23 अगस्त ’20 23 को सफलतापूर्वक चांद की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली। इस दुर्गम क्षेत्र में पहली बार भारत ने अपना तीसरा चंद्रयान चांद के दक्षिणी ध्रुव की पर भेजने में शानदार तरीके से सफलता प्राप्त की है, जहां आज तक किसी अंतरिक्ष संस्थान ने हिम्मत नहीं की। आखिर चांद के दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक लक्ष्मण रेखा क्यों खींची रही ? यहां की विशेष भौगोलिक पृष्ठभूमि के कारण ही बगलें झांकने की नौबत बनी रही। यह हिस्सा अंधेरे में डूबा किसी रहस्य से कतई कम नहीं। चांद के भूमध्यरेखीय क्षेत्र में ही अनुसंधान अभियान हुए हैं क्योंकि वहां चंद्रतल सपाट है। दक्षिणी ध्रुव उबड़-खाबड़ है और कई ज्वालामुखी हैं। दक्षिणी ध्रुव कोई ढाई हजार किलोमीटर चौड़ा और 8 किलोमीटर गहरे गड्ढे के किनारे स्थित है,जिसे सौरमंडल का सबसे पुराना ‘इंपैक्ट क्रेटर’ माना जाता है। इंपैक्ट क्रेटर किसी ग्रह-उपग्रह में हुए उन गड्ढों से है, जो किसी बड़े उल्का पिंडों या ग्रहों की टक्करों से बन जाते हैं।
यही टूटा हिस्सा चांद है
वैज्ञानिकों का मानना है कि चंद्रमा 4.51 अरब साल पहले अस्तित्व में आया था। मंगल ग्रह के आकार जितना कोई पिंड पृथ्वी से टकराया था और पृथ्वी का एक हिस्सा टूट गया था। यही टूटा हिस्सा चांद है। इसके बाद ,बीस करोड़ वर्षों तक अंतरिक्ष से चंद्रमा पर उल्कापिंडों की बारिश होती रही । नतीजतन अनेक दरारें बन गयीं,जिनमें लावा का बहाव था। चीन के अंतरिक्ष यान चांग ई 4 से प्राप्त जानकारी के मुताबिक यह प्रक्रिया धीमी होती आ रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि एक अरब साल पूर्व चंद्रमा पर ज्वालामुखी की गतिविधियां खत्म हो गयीं पर ऐसा क्यों है कि चांद पर अनगिनत गड्ढे हैं और वहां रोशनी भी नदारद है।
चांद पर चौदह लाख गड्ढे हैं
दरअसल, चांद और पृथ्वी दोनों पर अंतरिक्ष से आने वाले पत्थर गिरते रहते हैं,जिनसे गड्ढे बनते हैं। अनुमान है कि चांद पर करीब चौदह लाख से अधिक गड्ढे हैं, जिनमें कोई नौ हजार एक सौ सैंतीस की ही पहचान की गई है। ऐसा भी नहीं है कि चांद की सतह पर जो गड्ढे हैं वह सिर्फ इंपैक्ट क्रेटर है, कुछ ज्वालामुखियों के विस्फोट से भी बने हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ‘नासा’ ने चंद्रमा पर सबसे बड़ा गड्ढा 17 मार्च 2013 को देखा था। यह गड्ढा चालीस किलो के पत्थर से बना था जो नब्बे हजार किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से टकराया था। यह गड्ढा इतना बड़ा है, जिसे पृथ्वी से टेलीस्कोप की मदद से भी देखा जा सकता है। सोचने की बात है कि आखिर चांद के गड्ढे भरते क्यों नहीं ? दरअसल ,इसका कारण चांद पर न तो पानी का होना है,ना ही वहाँ हवा चलती है, इसलिए वहां की मिट्टी कटती नहीं है। इसलिए यह क्रेटर जस के तस रहते हैं। भरते नहीं हैं जबकि पृथ्वी पर बनने वाले गड्ढों में पानी भर जाता है और मिट्टी जम जाती है यहां तक कि उनमें पौधे भी उगते हैं। हैरानी की बात है कि चांद के ज्यादातर गड्ढे दो सौ साल पुराने हैं।
सूर्य की रोशनी
नासा के वैज्ञानिक नोहा पेट्रो का कहना है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सूर्य क्षितिज के नीचे हल्का- सा ऊपर रहता है।ऐसे में जितने दिन सूर्य की थोड़ी बहुत रोशनी दक्षिण ध्रुव के पास पहुंचती है,उन दिनों तापमान 54 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाता है लेकिन इस क्षेत्र में कई गगनचुंबी पर्वत और गहरे गड्ढे मौजूद हैं, जो प्रकाश वाले दिनों में भी अंधेरे में डूबे रहते हैं। इनमें से एक पर्वत की ऊंचाई साढ़े सात हजार मीटर है। इन गड्ढों और पर्वतों की छांव में आने वाले हिस्सों में तापमान -203 डिग्री सेल्सियस से 243 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।
दक्षिणी ध्रुव की और अनेक देशों की दिलचस्पी बढ़ी
अनेक अड़चनों के बावजूद दक्षिणी ध्रुव की और अनेक देशों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है। अत्याधुनिक सेंसर मौजूद है और उनकी मदद से चांद की ऊबड़-खाबड़ और धुंधली जगह के आकलन में असुविधाएँ आड़े नहीं आ सकतीं। चीन का चान्गेय-4 2019 में चंद्रमा की ओझल सतह पर उतर चुका है। भारत भी चंद्रयान-3 और चंद्रयान-4 के बाद 2026 में जापान के साथ मिलकर ,’जॉइंट पोलर एक्सप्लोरेशन’ मिशन पर काम करने की योजना क्रियान्वित करने वाला है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के अभियान का अभिप्राय पानी की खोज प्रमुख है। नासा के अंतरिक्ष यान ‘लूनर रिकॉन्सस आर्बिटर’ की ओर से जुटाए गए आंकड़ों से संकेत मिलता है कि चंद्रमा पर मौजूद अंधेरे में डूबे गहरे गड्ढे में बर्फ मौजूद है। गुरुत्वाकर्षण कम होने की वजह से चंद्रमा पर किसी तरह का वायुमंडल नहीं है, ऐसे में पानी सिर्फ ठोस या गैस की अवस्था में मौजूद हो सकता है।
भारत के चंद्रायन -1 ने 2008 में सर्वप्रथम चांद पर पानी की उपलब्धता का पता लगाया था
भारत के चंद्रायन -1 ने 2008 में सर्वप्रथम चांद पर पानी की उपलब्धता का पता लगाया था। ऐसे जल स्रोतों की संभावना है, जिनसे कम खर्च करके पानी प्राप्त किया जा सके। अगर वैज्ञानिकों को लाखों सालों में बर्फीला पानी परत दर परत सतह तक जमे बर्फ के रूप में मिल जाए तो फिर पानी के इतिहास को समझने का मौका मिल सकता है। भविष्य में मानव बस्तियां बसाने के उद्देश्य से तमाम प्रयास किया जा रहे हैं। बहरहाल ‘कला और बूढ़ा चांद ‘के कविवर सुमित्रानंदन पंत ‘शंख’ ध्वनि करते हुए कहते हैं-
“मुझे नहीं अच्छा लगता कि चांद में जाकर/ चंद्र पटल को खोद, / क्रूर भू -मानव नोचे संभव,/ दूरी के कारण हो,
उसके विक्षत और अंग में / लगी खरोच नहीं दिखती हो/ जो धरती के दैन्य दुख का नरक बसाकर/ चंद्रलोक में नीड़ बसाने का साहस कर/ स्पर्धा का अभियान वहां ले जाता गर्वित।”
साभार : -संतन कुमार पांडेय